"जिंदगी जब तक थोड़ी-थोड़ी समझ में आती है. कमबख़्त आधी से ज़्यादा तो बीत जाती है."
ये शब्द है थिएटर की दुनिया की अहम शख़्सियत नादिरा बब्बर के. नादिरा एक राइटर, थिएटर डायेक्टर और एक्टर हैं.
उनके पिता का नाम सज्जाद ज़हीर और मां का नाम रज़िया सज्जाद ज़हीर था. नादिरा बब्बर चार बहनें हैं जिनमें से वह तीसरे नंबर की.
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उन्होंने 'खानदानी सफ़ाखाना', 'जय हो', 'घायल वान्स अगेन' और 'ब्राइड एंड प्रेजुडिस' फ़िल्मों में काम किया है.
नादिरा ने फ़िल्म अभिनेता राज बब्बर से शादी की और उनके दो बच्चे हैं.
नादिरा बब्बर ने बीबीसी हिंदी की ख़ास पेशकश 'कहानी ज़िंदगी की' में अपनी ज़िंदगी के पहलुओं पर हमारे सहयोगी इरफ़ान से बात की.
कैसे शुरू हुआ अभिनय और लेखन का सफ़र
नादिरा बब्बर को घर में सभी प्यार से "शम्मो" बुलाते थे. उनके दादा सर वसीर हसन ब्रिटिश काल में भारत के चीफ़ जस्टिस रहे, जिन्हें अंग्रेज़ों ने 'सर' का ख़िताब दिया था. उनकी दादी को भी 'लेडी' की उपाधि से नवाज़ा गया था.
उनकी मां लेखिका और उर्दू की टीचर थीं और उनके पिता ने प्रगतिशील लेखक संघ की नींव डाली थी.
उनकी मां ने अकेले ही उनकी और उनके भाई-बहनों की परवरिश की.
नादिरा कहती हैं, "मेरी मां लेखक तो थीं, अब्बा पाकिस्तान चले गए थे और गिरफ़्तार हो गए थे. हमारी ज़िंदगी में उनका कोई योगदान नहीं था. एक औरत की हैसियत से उन्होंने हम लोगों को पाला पोसा."
"वह करामत हुसैन अहमद मुस्लिम स्कूल में उर्दू की टीचर थीं. पढ़ना -लिखना सिर्फ़ अम्मी की वजह से था."
नादिरा बब्बर ने लखनऊ से बीए किया और उसके बाद उनके परिवार ने दिल्ली का रुख किया. जहां उन्होंने नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में दाख़िला लिया. यहीं से उनके अभिनय और लेखन का सफ़र शुरू हुआ.
उनका लिखा और प्रस्तुत नाटक 'मेरी मां के हाथ' काफ़ी सराहा गया.
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नादिरा कहती हैं, "शुरू में मुझे एक्टिंग नहीं पसंद थी, फिर धीरे- धीरे पसंद आने लगी."
नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में उन्हें जाने माने थिएटर डायेक्टर इब्राहिम अल्काज़ी डायरेक्ट करते थे.
नादिरा ने बताया कि पहले सेमेस्टर में अमेरिका से आए थिएटर डायरेक्टर कार्ल बीबर के निर्देशन में एक नाटक हो रहा था. जिसमें उन्हें एक छोटा सा रोल मिला था. लेकिन एक सह-अभिनेत्री की बदतमीज़ी के चलते उन्हें उस नाटक का लीड किरदार दे दिया गया.
यही वह मोड़ था जहां से नादिरा के अभिनय के सफ़र की शुरुआत हुई.
उन्होंने तीन साल नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में एक्टिंग की. उस दौरान उन्हें उनके अभिनय को लेकर काफ़ी तारीफ़ मिली. उनके सीनियरों में सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावकर और प्रेमा आनंद जैसे प्रतिष्ठित कलाकार शामिल थे.
नादिरा कहती हैं, "मुझे मेरे अभिनय के लिए काफ़ी तारीफ़ मिली. तो कुछ गुरुर आ गया था. जब भी कोई मिलने आता था तो मैं उनसे नहीं मिलती थी. फिर एक दिन इब्राहिम अल्काज़ी ने मुझे डांटा और फिर उसके बाद मुझे एहसास हुआ. उसके बाद मैंने लोगों से फिर से मिलना शुरू किया."
नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से पढ़ाई पूरी करने के बाद नादिरा ने एक साल तक वहीं नौकरी की.
इसके बाद उन्हें एक स्कॉलरशिप मिली, जिससे वे तीन साल के लिए जर्मनी चली गईं. लेकिन इसी दौरान उनकी ज़िंदगी में एक निजी दुख आया, उनके पिता का निधन हो गया.
राज बब्बर से कैसे हुई मुलाकातनादिरा और राज बब्बर की पहली मुलाकात दिल्ली में नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा में हुई थी.
वह बताती हैं, "राज से मेरी मुलाकात दिल्ली में स्कूल ऑफ़ ड्रामा में हुई थी. उन्होंने स्कूल ज्वाइन किया और मैंने छोड़ा. वो मुझसे तीन साल जूनियर हैं."
राज बब्बर के अभिनय की शुरुआत भी नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा से ही हुई.
नादिरा याद करते हुए कहती हैं, "उन्हें अल्काज़ी साहब ने बड़े-बड़े प्रोडक्शन्स में महत्वपूर्ण रोल्स ज़रूर दिए लेकिन अल्काज़ी साहब से कभी उनकी नहीं बनी."
उन्होंने बताया कि साल 1980 के बाद उन्होंने मुंबई का रुख़ किया. इसका एक अहम कारण उनके पति राज बब्बर थे.
वह कहती हैं, "1980 के बाद मैं मुंबई आ गई क्योंकि राज मुंबई आ गए थे."
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नादिरा बब्बर ने दिल्ली में रहते हुए एक थिएटर ग्रुप बनाया जिसका नाम एकजुट था. शुरूआत के दिनों में इस ग्रुप में 20-25 लोग थे. अब इस थिएटर ग्रुप को पूरे 45 साल होने वाले हैं.
उनका मकसद एकजुट थिएटर के ज़रिए सामाजिक मूल्यों को संबोधित करना है.
उन्होंने कहा, "आप क्या चीजें कर रहे हैं. आप कोई ऐसी चीज तो नहीं कर रहे हैं जिनसे आपके समाज का नुकसान हो. समाज की बेहतरी, लोगों एक दूसरे से जुड़े रहे, मोहब्बत करें. ये इसका मकसद था."
उनका पहला नाटक 'दया शंकर की डायरी' बहुत लोकप्रिय हुआ, जो एक आम आदमी की मुंबई जैसे बड़े शहर में संघर्ष की कहानी कहता है.
नादिरा कहती हैं, "मैंने जो भी नाटक लिखे, वे सिर्फ़ कॉमेडी के लिए नहीं थे. हर नाटक किसी उद्देश्य से जुड़ा था, जिनमें बहुत गहराई और मतलब होता है."
एक और खास नाटक जिसे उन्होंने लिखा, वह मशहूर चित्रकार एम.एफ. हुसैन की ज़िंदगी पर आधारित था, 'पेंसिल से ब्रश तक'.
थिएटर की दुनिया में लंबे समय तक टिके रहना आसान नहीं होता और नादिरा इस चुनौती को बख़ूबी समझती हैं.
नादिरा कहती हैं, "थिएटर मेरी ज़िंदगी है. कोई अपनी ज़िंदगी को कैसे छोड़ सकता है? वो तो नहीं हो सकता, ना कभी होगा. ये तो मैं कभी जिंदगी में नहीं सोच सकती कि थक गए और थिएटर छोड़ दें."
लेखन के लिए उनका दृष्टिकोण भी स्पष्ट है.
वह कहती हैं, "लिखने का क्राइटेरिया यह होना चाहिए कि आप हमेशा ऐसी चीजें लिखो जो लोगों तक पहुंचे. लोग उसे पसंद करें और पहचाने. समाज की चीज़ों को देख सकें."
नादिरा बताती है कि उन्हें अपने खाली समय में सब्जी खरीदना और अलग-अलग तरह के लोगों से मिलना बहुत अच्छा लगता है.
वह बताती है, "मुझे सब्जी के बाज़ार में जाना बहुत पसंद है. वहां तरह-तरह की सब्जियों के ढ़ेर लगे होते है. सब्जी वालों में भी कुछ अलग-अलग तरह के सब्जी वाले होते है, जिनमें कुछ ज़बरदस्त सेंस ऑफ़ ह्यूमर होता है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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