सोमवार रात जगदीप धनखड़ ने उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफ़ा देकर राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी.
इसके साथ ही उनके इस्तीफे़ पर विश्लेषणों का दौर शुरू हो गया.
जगदीप धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों का हवाला देकर इस्तीफ़ा दिया था लेकिन इसके सियासी मतलब निकाले जा रहे हैं.
न्यूज़ चैनलों से लेकर वेबसाइटों पर विश्लेषकों ने इस राजनीतिक घटनाक्रम पर अपना नज़रिया पेश किया है.
वहीं देश के प्रमुख अख़बारों ने भी इस्तीफे़ की 'असली वजह' ढूंढने की कोशिश की है.
कुछ अख़बारों ने ये भी बताने की कोशिश की है कि आख़िर इस इस्तीफ़े के मायने क्या हैं.
'चुप्पी तोड़ें धनखड़'अंग्रेज़ी अख़बार'इंडियन एक्सप्रेस'ने लिखा है कि जगदीप धनखड़ के इस्तीफ़े पर सरकार की ओर से कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, सिवाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से मंगलवार दोपहर को जारी एक स्वीकृति के.
अख़बार लिखता है कि इस अचानक उठाए गए क़दम के पीछे जो वजह बताई जा रही है, वह है इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के यहां कथित नक़द बरामदगी के चलते महाभियोग प्रस्ताव लाने को लेकर दो अलग-अलग हस्ताक्षर अभियानों की शुरुआत.
मॉनसून सत्र की शुरुआत से पहले ही सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि वह जस्टिस वर्मा को हटाने के लिए प्रस्ताव लाएगी.
मोदी सरकार चाहती थी कि न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया 'सर्वसम्मति' से हो और इसे पक्षपातपूर्ण न समझा जाए.
'द इंडियन एक्सप्रेस' ने एक विपक्षी सांसद के हवाले से लिखा है कि वह इस प्रक्रिया से एनडीए सदस्यों को दूर रखना चाहते थे ताकि सत्ताधारी गठबंधन भ्रष्टाचार-विरोधी नैतिक आधार पर इसका श्रेय न ले पाए.
उन्होंने कहा, ''हम नहीं चाहते थे कि इस मुद्दे पर सरकार नैतिक ऊंचाई हासिल कर ले.".
विपक्ष के सूत्रों का कहना है कि वह जस्टिस शेखर यादव के मुद्दे को भी उठाना चाहते थे, जिनके ख़िलाफ़ वीएचपी के कार्यक्रम में दिए गए विवादास्पद बयानों को लेकर हटाने की मांग की गई थी.
अख़बार ने अपने संपादकीयमें लिखा है कि जगदीप धनखड़ को ख़ुद आगे आकर इस्तीफ़े की वजह बतानी चाहिए.
अख़बार लिखता है कि धनखड़ का इस तरह इस्तीफ़ा देना उनके सार्वजनिक व्यक्तित्व और रिकॉर्ड से मेल नहीं खाता.
उपराष्ट्रपति बनने के बाद भी, उन्होंने न केवल विपक्ष बल्कि कई बार न्यायपालिका को भी निशाने पर लिया.
वह एकमात्र उपराष्ट्रपति हैं जिनके ख़िलाफ़ विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाने का अभूतपूर्व क़दम उठाया, उन पर "पक्षपातपूर्ण व्यवहार" और सरकार के "प्रवक्ता" होने का आरोप लगाया गया.
अब जब उन्होंने अपने कार्यकाल के बीच में इस्तीफ़ा दे दिया है, तो उनकी चुप्पी ख़ुद उनकी ही परंपरा से मेल नहीं खाती.
अपने पद की गरिमा और ख़ुद की बेबाक छवि के अनुरूप, धनखड़ को इस चुप्पी को तोड़कर सामने आना चाहिए और देश को बताना चाहिए कि आख़िरकार उन्होंने यह अप्रत्याशित फैसला क्यों लिया.
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'टाइम्स ऑफ इंडिया' ने लिखा कि "दिल्ली के सत्ता गलियारों और मीडिया में कुछ दिनों तक तो इस पर अटकलें चलती रहेंगी कि आख़िर धनखड़ ने इतना बड़ा फ़ैसला अचानक क्यों लिया लेकिन इस पूरी बहस में जो बात सबसे अधिक भुला दी जाएगी वह है सिद्धांत. धनखड़ जिस संवैधानिक पद पर आसीन थे, वहां नाटकीयता नहीं, शालीनता की ज़रूरत थी."
"उन्होंने उच्चतम न्यायपालिका के व्यवहार को लेकर लगातार तीखी और विवादास्पद टिप्पणियां कीं. उनका ख़ुद का ऐसे 'चुपचाप' और 'गोपनीय' ढंग से पद छोड़ना एक गहरे व्यंग्य की तरह लगता है."
सभी पक्षों और विश्लेषकों की आम राय यही है कि सिर्फ स्वास्थ्य ही धनखड़ के फ़ैसले की मुख्य वजह नहीं था.
अख़बार लिखता है कि "यह कहना अन्यायपूर्ण नहीं होगा कि धनखड़ कई बार न संयमित नज़र आए और न ही निष्पक्ष."
"उन्होंने कई बार ऐसी भाषा और तेवर अपनाए जो संवैधानिक पद के अनुरूप नहीं कहे जा सकते."
"मूल समस्या यह है कि आज हम स्वाभाविक रूप से यह मानना बंद कर चुके हैं कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग अपने पद की गरिमा और मर्यादा का पालन करेंगे. लेकिन अगर संसद को वास्तव में बेहतर ढंग से चलाना है, तो ज़रूरी है कि विपक्ष को अपनी बात रखने का समुचित अवसर और सम्मान मिले."
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'हिन्दुस्तान टाइम्स' ने अपने संपादकीय में लिखा, ''जगदीप धनखड़ ने कुछ ही दिन पहले कहा था कि मैं सही समय पर रिटायर होऊंगा, अगस्त 2027 में. अगर ईश्वर का कोई हस्तक्षेप न हो तो.''
लेकिन उन्होंने कुछ ही दिनों बाद अपना पद छोड़ दिया.
उन्हें राज्यसभा में कोई औपचारिक विदाई नहीं दी गई . यही वजह है कि विपक्ष को उनके इस्तीफ़े की वजहों पर संदेह है.
विपक्ष कह रहा है कि सरकार को चाहिए कि वह इसकी वजह बताए ताकि बग़ैर आधार वाली अटकलें और साज़िश की थ्योरी को दरकिनार किया जा सके.
अख़बार लिखता है कि धनखड़ ने विपक्ष पर राज्यसभा के कामकाज को रोकने का आरोप लगाया है.
विपक्षी सांसदों से उनके आंकड़े छत्तीस के रहे. इसके साथ ही उन्होंने कई बार सुप्रीम कोर्ट पर निशाना साधा. उन्होंने कोलेजियम सिस्टम और संविधान के मूल ढांचा सिद्धांत पर सवाल किए.
इसके अलावा उन्होंने जस्टिस यशवंत वर्मा के महाभियोग के मामले में सक्रियता दिखाई उससे भी उनके इस्तीफे़ को लेकर अटकलों को बल मिला.
अख़बार लिखता है, "क्या धनखड़ ने कोई 'रेड लाइन' पार कर ली थी. अगर ऐसा है तो क्यों और कैसे. देश को इस बारे में जानने का पूरा हक़ है. राष्ट्रपति का पद संवैधानिक पद है."
"इसकी गरिमा और पवित्रता संदेह और अफ़वाहों के दायरे में नहीं आनी चाहिए. अब यह देखने वाली बात होगी कि सरकार इस्तीफ़े के बाद की स्थितियों को कैसे संभालेगी."
'द हिंदू' ने सोमवार को दिए गए जगदीप धनखड़ के इस्तीफे़ के बारे में लिखा है कि इस वर्ष की शुरुआत में एक स्वास्थ्य समस्या के बाद वह सार्वजनिक जीवन में लौट आए थे.
"सोमवार को जो कुछ भी हुआ उसका स्वास्थ्य संबंधी कारणों से कोई लेना-देना नहीं था."
"धनखड़ के कार्यपालिका के साथ रिश्ते कुछ समय से खराब चल रहे थे लेकिन न्यायिक जवाबदेही पर उनका रुख़ एक अहम मोड़ साबित हुआ."
अख़बार के मुताबिक़, संसद की सर्वोच्चता को बनाए रखने और न्यायपालिका के लिए स्वीकार्य आचरण की एक रेखा खींचने की कोशिश करते हुए उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज शेखर कुमार यादव पर महाभियोग चलाने के विपक्ष के प्रस्ताव का समर्थन किया था.
उन्होंने दिल्ली हाई कोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के ख़िलाफ़ विपक्ष के महाभियोग प्रस्ताव को भी स्वीकार कर लिया था.
अख़बार लिखता है, "नियमों की वजह से धनखड़ के पास उनके अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा. लेकिन इससे उनका सरकार से टकराव का रास्ता खुल गया. उनका इस्तीफ़ा भारत के संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करता है."
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'दैनिक भास्कर' में वरिष्ठ पत्रकार शीला भट्ट लिखती हैं, ''उन्होंने सोमवार को सदन शुरू होते ही घोषणा कर दी कि हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा को हटाने के लिए विपक्ष के सदस्यों का प्रस्ताव उन्हें मिला है और उन्होंने उसे स्वीकार कर लिया है.''
वह लिखती हैं, ''ये बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका था. राज्यसभा में 63 विपक्षी सांसदों की ओर से लाया प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने के बाद लोकसभा में इसी तरह का प्रस्ताव पेश करने का मौक़ा बीजेपी ने गंवा दिया. इस पर विचार के लिए लोकसभा सदस्यों की समिति बनाने की योजना थी."
"धनखड़ जानते थे कि सरकार लोकसभा में पहले ही नोटिस जारी कर चुकी है. उन्होंने सरकार को मात दे दी. वह महाभियोग की कार्यवाही को नियंत्रित करना चाहते थे.''
वह लिखती हैं, "धनखड़ का इस्तीफ़ा बीजेपी के लिए शुभ संकेत नहीं है. उपराष्ट्रपति जैसे अहम पद के लिए उन्हें चुनने के बाद अगर सरकार उनके साथ कामकाज में सामंजस्य नहीं बिठा पाई है तो ये बीजेपी के जजमेंट की विफलता है."
"अब बीजेपी आशा ही कर सकती है कि धनखड़ सत्यपाल मलिक की राह पर आगे नहीं बढ़ेंगे."
उन्होंने लिखा है, ''धनखड़ के प्रकरण से ये बात है कि बीजेपी एक कमज़ोर पार्टी नहीं कहलाना चाहती थी. पिछले एक साल से प्रधानमंत्री केंद्र में स्थिरता का आभास देने के लिए हरसंभव कोशिश कर कर रहे हैं. लेकिन धनखड़ राज्यसभा में विधायी कार्यों को नियंत्रित करना चाहते थे.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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