
नूरजहां अभी-अभी एक क्लिनिकल परीक्षण से वापस लौटी हैं. उन्होंने एक रिसर्च लैबोरेटरी में तीन दिन बिताए थे. वहां जांचकर्ताओं और दवा कंपनियों ने उन पर नई दवाओं का परीक्षण किया था.
अपने छोटे से घर में जब नूरजहां दाखिल हुईं तो उनके बच्चे और पति उनका स्वागत करने के लिए इंतज़ार कर रहे थे.
नूरजहां के घर में एक छोटा-सा रसोईघर, पार्टिशन वाला पलंग और कपड़ों से भरे कुछ बक्से हैं. नूरजहां अपनी बेटी की शादी की तैयारी कर रही हैं.
परिवार के भरण-पोषण और बेटी की शादी के लिए कुछ पैसे जमा करने के लिए नूरजहां क्लिनिकल ट्रायल्स में शामिल होती हैं. उनका कहना है, "मैं यह सुनिश्चित करती हूं कि मेरे बच्चे रात में भूखे न सोएं."
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नूरजहाँ इस समय तीन महीने के क्लिनिकल ट्रायल का हिस्सा हैं. उन्हें नियमित रूप से परीक्षणों के लिए रिसर्च लैब जाना होगा. क्लिनिकल ट्रायल के अंत में उन्हें 51 हज़ार रुपये का भुगतान किया जाएगा.
जब बीबीसी ने नूरजहाँ से बात की, तब तक उन्हें 15 हज़ार रुपये मिल चुके थे. नूरजहाँ ने बताया कि वह बाक़ी 36 हज़ार रुपये अपनी बेटी की शादी में खर्च करेंगी.
नूरजहाँ ने बीबीसी को बताया, "हम ग़रीब लोग हैं. हमें तो वैसे भी इसी छोटी सी झोपड़ी में मरना है. मुझे गर्व है कि मैं कुछ ग़लत नहीं कर रही हूँ. जब मुझे बाक़ी पैसे मिल जाएँगे, तो मैं अपनी बेटी की शादी कर दूँगी."
नूरजहाँ अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे से विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास के लिए बसाई गई बस्ती गणेशनगर में रहती हैं. वे आस-पास की रिसर्च लैब्स में चल रहे क्लिनिकल ट्रायल में भाग लेने वाले सैकड़ों लोगों में से एक हैं.
नूरजहां की तरह 60 साल की जस्सीबेन चुनारा भी क्लिनिकल ट्रायल्स में हिस्सा लेती हैं. कुछ साल पहले उनके पति और बेटे दोनों की मौत हो गई थी. पहले वे अहमदाबाद के जमालपुर की सब्ज़ी और फूल मार्केट के पास रहती थीं.
जस्सीबेन ने कहा, "जब मैं जमालपुर में रहती थी, तब कभी आर्थिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा. मार्केट से बेकार सब्ज़ियां उठा लेती थी और उन्हें बेच देती थी."
उन्होंने आगे कहा, "अब गणेशनगर शिफ़्ट होने के बाद मेरे पास कोई आय का साधन नहीं है. क्लिनिकल ट्रायल में शामिल होने के अलावा मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है."
उनकी छोटी झोपड़ी में फर्नीचर के नाम पर केवल एक खाट है. जस्सीबेन चुनारा ने बताया, "अब मैं सब्ज़ियां नहीं बेच सकती. मैं बीमार हूं. शरीर में जलन होती है. हाथों में दर्द रहता है. फिर भी मैं क्लिनिकल ट्रायल में जाती हूं ताकि भूखी न मरना पड़े."

अहमदाबाद के बाहर पीराना डंपिंग यार्ड के पास बसे गणेशनगर में करीब 15 हज़ार लोग रहते हैं. इनमें से अधिकतर परिवार कम आय वाले हैं.
इनमें से कई लोग पहले सुभाषब्रिज, शाहपुर, शंकर भवन, वीएस अस्पताल, वासणा बैराज और जमालपुर जैसे नदी किनारे के इलाकों में रहते थे और अहमदाबाद की मंडियों में दिहाड़ी मज़दूरी करते थे.
जबकि महिलाएं मार्केट में या किसी के घर में काम करती थीं और रोज़ाना 200 से 400 रुपये तक कमाती थीं. पुनर्वास के बाद इनमें से कई लोगों ने अपना काम खो दिया है.
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अहमदाबाद म्युनिसिपल कॉरपोरेशन की रिपोर्ट के मुताबिक़, सुुभाषब्रिज से वासणा बैराज तक नदी किनारे के इलाके में रहने वाले 12 हज़ार से अधिक परिवारों को 29 सरकारी कॉलोनियों में शिफ़्ट किया गया है.
विस्थापितों को उनके पुराने घर से दो-तीन किलोमीटर दूर ही नए मकान देने का वादा किया गया था.
48 साल की बिस्मिल्लाह कोला का गणेशनगर आने से पहले ही उनका तलाक़ हो चुका था. एक समय वे घरेलू सहायक के तौर पर काम करती थीं और पास की सोसायटियों में उन्हें काम मिल जाता था. लेकिन बेटे की आपराधिक मामले में गिरफ़्तारी के बाद बिस्मिल्लाह ने क्लिनिकल ट्रायल्स में हिस्सा लेना शुरू कर दिया.
उन्होंने कहा, "मैं अकेली हूं. मेरा सहारा कोई नहीं है. अदालत में बेटे का केस लड़ने के पैसे नहीं हैं. घर की मरम्मत कराने के पैसे भी नहीं हैं. मैं क्या करूं? किसी ने बताया कि क्लिनिकल ट्रायल से कुछ पैसे मिल जाते हैं, तो मैंने इसमें शामिल होना शुरू कर दिया."
बिस्मिल्लाह कई ट्रायल्स में हिस्सा ले चुकी हैं. गणेशनगर के स्थानीय लोग इन क्लिनिकल ट्रायल्स को 'एसटीडी' कहते हैं. दरअसल इन्होंने 'स्टडी' शब्द को अपना नाम दे दिया है.
बिस्मिल्लाह ने बताया, "मैं कम से कम सात से दस एसटीडी का हिस्सा रही हूं और 12 हज़ार से 15 हज़ार रुपये कमाए हैं. मुझे तीन दिन तक लैबोरेटरी में रहना पड़ता है और दवा लेने के बाद वे नियमित रूप से मेरा खून लेते रहते हैं."
एजेंट, नेटवर्क और नियम
बिस्मिल्लाह को इस क्लिनिकल ट्रायल के बारे में स्थानीय एजेंटों के नेटवर्क से पता चला. एजेंट जितने लोग लाते हैं, उनके लिए उन्हें प्रति व्यक्ति ₹500 से ₹1,000 तक मिलता है.
एक एजेंट ने नाम न बताने की शर्त पर बीबीसी से कहा, "आमतौर पर लैब्स हमसे संपर्क करती हैं, जब उन्हें किसी खास आयु वर्ग या महिला/पुरुष की ज़रूरत होती है. उनके पास हमारे नंबर होते हैं और वे हमें कॉल करते हैं."
"हम एक व्हाट्सऐप ग्रुप में हैं, जहाँ विज्ञापन पोस्ट किए जाते हैं. कभी-कभी हम लोगों को लैब में लेकर जाते हैं, कभी उन्हें सीधे भेजते हैं."
यह एजेंट पहले खुद भी ट्रायल्स में भाग लेते थे. अब वे बिस्मिल्लाह, नूरजहाँ और जस्सीबेन जैसे लोगों का नेटवर्क चलाते हैं.
एजेंट के अनुसार, "इसमें ग़लत क्या है? (रिसर्च कंपनियाँ) कुछ भी गैरकानूनी नहीं कर रही हैं. वे कानूनी प्रक्रिया का पालन करती हैं. लोगों की सहमति लिखित रूप में और कैमरे पर ली जाती है."
"प्रतिभागियों को बताया जाता है कि दवा और उसके दुष्प्रभावों का ट्रायल किया जा रहा है. डॉक्टर का नाम और फ़ोन नंबर भी दिया जाता है, ताकि ट्रायल में शामिल होने वाले घर लौटने के बाद भी डॉक्टर से मदद ले सकें."
स्थानीय कार्यकर्ता बीना जाधव ने कहा, "पहले एक-दो बार ये लोग पैसे कमाने के लिए ट्रायल्स में शामिल हुए थे, लेकिन अब यह एक व्यवसाय बन गया है. हम उन्हें जोखिमों के बारे में चेतावनी दे रहे हैं, लेकिन लोगों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि इस इलाक़े में कोई रोजगार नहीं है."

बीबीसी ने यह जानने के लिए एक प्रमुख रिसर्च लैब से संपर्क किया कि क्या ये ट्रायल्स वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन और भारत सरकार द्वारा निर्धारित गुड क्लिनिकल प्रैक्टिस गाइडलाइंस के अनुसार किए जा रहे हैं.
वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइज़ेशन की गाइडलाइन कहती है कि मेडिकल ट्रायल में भाग लेने के लिए पैसे पाने वाले लोगों के लिए, "इस तरह के पैसे को आम तौर पर स्टडी के लाभ के बजाय भर्ती प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जाता है."
"हालांकि, आईईसी – आईआरबी को भुगतान की राशि और उसकी प्रक्रिया की समीक्षा करनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसके पीछे किसी तरह की मजबूरी या ग़लत वजह न हो. पैसों का भुगतान इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि लोगों को इसमें शामिल होने या स्टडी में बने रहने के लिए अनावश्यक तौर पर प्रोत्साहित किया जाए."
सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय पारिख ने इस तरीके को "मानवाधिकार का गंभीर उल्लंघन" बताया.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "हम उन लोगों की बात कर रहे हैं जो ट्रायल के दुष्प्रभावों से अनजान हैं. उनकी सहमति को कानूनी रूप से 'सूचित सहमति' नहीं माना जा सकता."
मध्य प्रदेश स्थित 'स्वास्थ्य अधिकार मंच' नामक संगठन द्वारा दायर एक याचिका का संजय पारिख अदालत में प्रतिनिधित्व कर रहे हैं.
इस संगठन ने इंदौर में क्लिनिकल ट्रायल्स से जुड़ी कई मौतों के बाद चिंता व्यक्त की थी.
संगठन के राष्ट्रीय संयोजक अमूल्य निधि ने कहा, "ऐसा सिर्फ़ गुजरात में नहीं हो रहा है. मुंबई, हैदराबाद और अन्य शहरों में भी लैब्स लोगों का इस्तेमाल 'गिनी पिग्स' की तरह कर रही हैं."
परीक्षणों में अनियमितताओं की जांच कर चुकी एक संसदीय समिति ने भी देश के कमज़ोर वर्गों के लिए 'गिनी पिग' शब्द का इस्तेमाल किया था.
संजय पारिख ने आगे कहा, "वॉलंटियर्स की भर्ती से लेकर ट्रायल के रिज़ल्ट तक हर चरण की निगरानी के लिए उचित व्यवस्था नहीं बनाई गई है. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक कमज़ोर लोगों का शोषण होता रहेगा. ट्रायल के निश्चित निष्कर्षों को छोड़कर बाक़ी सारी जानकारी सार्वजनिक की जानी चाहिए."
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने अमेरिका स्थित ग्रैंडव्यू रिसर्च के हवाले से बताया कि भारत का क्लिनिकल ट्रायल बाज़ार 2025 तक 1.51 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है.
कंपनियाँ भारत की ओर इसलिए आकर्षित हो रही हैं क्योंकि यहाँ ट्रायल के फ़ेल होने की लागत कम होती है.
कॉमनवेल्थ फ़ार्मास्युटिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉक्टर राव वीएसवी. वडलामुडी ने बीबीसी से कहा, "एक तरफ़ लोगों को पैसों की ज़रूरत है और दूसरी तरफ कंपनियों को दवाओं के परीक्षण के लिए वॉलंटियर्स की ज़रूरत है. मुझे नहीं पता कि यह सब कानून और सरकारी मानकों के अनुसार किया जा रहा है या नहीं."
"ऐसे सवाल पूछकर हम किसे बचा रहे हैं, यह भी मैं नहीं जानता. दवा बनाना एक सम्मानजनक व्यवसाय है और हमें वॉलंटियर्स की ज़रूरत है ताकि समाज को बड़े पैमाने पर लाभ मिल सके, लेकिन सभी मानकों का पालन होना चाहिए."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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