"बात उन दिनों की है जब राज कपूर फ़िल्म के सिलसिले में लंदन से मॉस्को पहुँचे थे. किसी ग़लतफ़हमी की वजह से उनके पास सही दस्तावेज़ नहीं थे. लेकिन वीज़ा न होने के बावजूद मॉस्को में उन्हें एंट्री दे दी गई. आख़िर वो राज कपूर थे."
"राज कपूर बाहर निकलकर टैक्सी में बैठे, लेकिन उन्होंने देखा कि टैक्सी आगे नहीं जा रही है बल्कि ऊपर की ओर जा रही है. राज कपूर को देखकर मॉस्को में ज़बरदस्त भीड़ इकट्ठा हो गई थी और लोगों ने टैक्सी को कंधों पर उठा लिया था."
ऋषि कपूर का सुनाया यह क़िस्सा थोड़ा अविश्वसनीय तो लगता है कि क्या ऐसा भी हो सकता है, लेकिन यह बताता है कि राज कपूर पूर्व सोवियत संघ में किस क़दर मशहूर थे. और यह लोकप्रियता उन्होंने दशकों की मेहनत से 'आवारा' और 'श्री 420' जैसी फ़िल्मों से कमाई थी.
वही 'श्री 420' जो आज से 70 साल पहले 6 सितंबर 1955 को रिलीज़ हुई थी.
वही 'श्री 420' जिसमें जब गाँव से शहर आया राज (राज कपूर) डिग्री होने के बावजूद नौकरी नहीं ढूँढ पाता और वह रद्दीवाले की दुकान पर अपना मेडल गिरवी रखने चला जाता है, जो उसे ईमानदारी के लिए कभी मिला था.
और कहता है, "मैं ईमान बेचना चाहता हूँ, सच्चाई के लिए मिला इनाम. आप इस ईमान की क्या क़ीमत लगाते हैं."
1955 में आई राज कपूर और नरगिस की फ़िल्म 'श्री 420' इसी नैतिक दुविधा की कहानी है.
जहाँ एक तरफ़ पढ़ा-लिखा, नैतिक मूल्यों वाला बेरोज़गार नौजवान है और दूसरी तरफ़ नए शहर की चकाचौंध भरी अपराध की दुनिया, जिसमें अमीर होने का रास्ता आसान है.
इसराइली दल ने पहचान ली 'इचक दाना' की धुनभारतीय फ़िल्मों को लेकर जिस ग्लोबल लोकप्रियता की बात आज होती है, उसका स्वाद राज कपूर ने भारतवासियों को चखाया था. ईरान, चीन से लेकर पूर्व सोवियत संघ तक इस फ़िल्म और राज कपूर का ज़बरदस्त क्रेज़ हुआ करता था.
इसराइल में भी 'श्री 420' के गाने हिट हैं, कई लोग आपको 'इचक दाना' सुनाकर दिखा देंगे.
जब 2018 में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू और उनका दल भारत आया था और बैंड में 'इचक दाना' बज रहा था, तो इसराइली दल के लोगों ने बताया था कि उन्हें यह गाना आता है. यह क़िस्सा पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने ख़ुद प्रेस को बताया था.
'श्री 420' इतनी मशहूर थी कि इसका प्रीमियर ईरान में भी रखा गया था. सूट-बूट में पहुँचे राज कपूर को देखकर वहाँ की जनता ने ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाना शुरू कर दिया था.
उज़्बेकिस्तान में यह फ़िल्म आज भी 'जनॉब 420' के नाम से मशहूर है.
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'श्री 420' का मुकेश का गाया गाना 'फिर भी दिल है हिंदुस्तानी' एक तरह का राष्ट्रीय एंथम बन गया था.
यह गाना हिंदुस्तान के प्रति प्यार को दर्शाता है, लेकिन 'श्री 420' हिंदुस्तान की सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्थिति पर सवाल उठाने से भी नहीं चूकती. अंध-राष्ट्रभक्ति से भरे ये विरोधाभास ही इस फ़िल्म की सुंदरता हैं.
कई छोटे-छोटे दृश्यों में राज कपूर राजनीतिक कटाक्ष कर जाते हैं.
मसलन, फ़िल्म की शुरुआत में राज समुद्र किनारे शीर्षासन कर रहा है यानी सर के बल खड़ा है. तभी एक कॉन्स्टेबल आकर उसे फटकारने लगता है.
और राज बोलता है, "सच्ची बात यह है हवलदार साहब कि इस उल्टी दुनिया को सीधा देखना हो तो सर के बल खड़ा होना पड़ता है. जानते हैं हवलदार साहब, बड़े-बड़े नेता सवेरे उठकर शीर्षासन करते हैं, तब देश को सीधा कर पाते हैं."
और आप मन ही मन मुस्कुरा देते हैं.
राज कपूर, नरगिस और बारिश
'श्री 420' देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं कि यह फ़िल्म इतनी कामयाब क्यों हुई.
चार्ली चैपलिन जैसे सीधे-सादे नौसिखिए किरदार का चार्म लिए राज कपूर और उनके प्यार में डूबी नरगिस...
आज भी जब आप दोनों को बारिश में एक छतरी के नीचे 'प्यार हुआ इक़रार हुआ है' गाते हुए सुनते हैं, तो ऐसा लगता है मानो उस दिन की बारिश के छीटों में आज तक प्रेमी-प्रेमिकाएं सराबोर हो रहे हैं.
लेकिन 'श्री 420' बारिश और रोमांस से कहीं आगे की फ़िल्म है.
'श्री 420' 1955 के उस भारत को दर्शाती है जो आज़ाद तो हो गया है, लेकिन जहाँ पढ़े-लिखों के पास नौकरी नहीं है, जहाँ अमीर-ग़रीब में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है और युवा गाँव से शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर हैं.
फ़िल्म का हीरो राज भी ईमान की राह पर चलता है, पर हाथ कुछ नहीं आता. ऐसे में जब राज को बेरोज़गारी और ग़रीबी या अपराध और अमीरी में से एक को चुनना होता है, तो वह अपराध को चुनता है.
ज़रिया बनती है माया (अभिनेत्री नादिरा), जो भाँप लेती है कि राज के पास पत्तों को चुनने का हुनर है और वह उससे बड़ी रक़म कमा सकती है.
लेकिन सामने नैतिक चुनौती बनकर खड़ी है विद्या यानी नरगिस, जो राज से प्यार करती है.
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फ़िल्म का गाना 'मुड़ मुड़ के न देख' बहुत लोकप्रिय है. यह गाना दरअसल अपने बोलों, रोशनी और परछाई के खेल के ज़रिए राज कपूर की नैतिक दुविधा को बहुत क्रिएटिव तरीक़े से दिखाता है.
उस सीन में दिवाली की रात जश्न मनाने के लिए राज कपूर, नरगिस को दावत पर एक महंगे होटल में लेकर जाते हैं.
मामूली से स्कूल में टीचर नरगिस भाँप जाती है कि राज का यह पैसा ग़लत तरीक़ों से कमाया गया है और वह राज को छोड़कर होटल से जाने लगती हैं.
जब राज पीछे मुड़कर विद्या को देखने लगता है, तो माया यानी नादिरा गाना शुरू करती है, 'मुड़ मुड़ के न देख, मुड़ मुड़ के'.
गाने के इस पल में आप देखेंगे कि राज कपूर दरवाज़े की दहलीज़ पर दुविधा में खड़े हैं और उनके चारों ओर अंधेरा है.
फिर अचानक उसके चेहरे पर रोशनी छा जाती है. बैकग्राउंड से वह फोरग्राउंड में आ जाते हैं और उनके चेहरे पर मुस्कान होती है.
बिना कुछ भी कहे आप समझ जाते हैं कि राज ने नेकी से बेईमानी वाली दहलीज़ पार कर ली है और वह विद्या की दुनिया से माया की दुनिया में दाख़िल हो चुका है.
सब कुछ सिनेमेटोग्राफ़र राधू करमाकर ने रोशनी से खेलते हुए समझा दिया, बिना किसी डायलॉग के.
सिर्फ़ एक डायलॉग आता है, "इस रास्ते पर तुम्हें विद्या की नहीं माया की ज़रूरत है."
'मुड़ मुड़ के न देख' आशा भोंसले के शुरुआती दिनों का हिट गाना था. और इस गाने में कहीं आपको बैकग्राउंड में नाचने वालों में साधना भी दिख जाएँगी, जो तब तक लॉन्च नहीं हुई थीं.
मुकेश एक्टिंग में व्यस्त, तो मन्ना डे ने गाए गानेगानों की बात करें तो राज कपूर की आवाज़ समझे जाने वाले मुकेश ने 'श्री 420' के सारे गाने नहीं गाए. 'प्यार हुआ' और 'दिल का हाल सुने दिलवाला' जैसे गाने मन्ना डे ने गाए.
उसकी बड़ी वजह यह थी कि यह वह दौर था जब मुकेश गायन के साथ-साथ एक्टिंग पर भी ध्यान दे रहे थे और 'अनुराग' जैसी अपनी फ़िल्मों की शूटिंग में व्यस्त थे.
बाकी जोड़ीदार तो वही थे, शंकर-जयकिशन का संगीत, हसरत जयपुरी और शैलेंद्र के गीत.
'श्री' भी और '420' भीफ़िल्म के चरित्र कलाकार भी गहरी छाप छोड़कर जाते हैं. जब भूखा-प्यासा राज बॉम्बे में भटक रहा होता है, तो एक ग़रीब केले वाली (ललिता पवार) उसके साथ हमदर्दी दिखाती है.
वहीं यह फ़िल्म बड़े शहरों की बेरुख़ी भी दिखाती है.
मसलन, एक सीन में नरगिस केले के छिलके पर गिर जाती है, तो सब उस पर हँसते हैं. राज कपूर भी उन हँसने वालों में सबसे आगे होते हैं.
थोड़ी देर बाद जब राज कपूर उसी केले के छिलके पर गिर जाते हैं, तो सब मिलकर उन पर हँसते हैं. और साथ वाला कहता है, "यह बम्बई है मेरे भाई, यहाँ दूसरों को देखकर सब हँसते हैं."
ख़्वाजा अहमद अब्बास की यह कहानी यूँ तो नैतिकता की कहानी है, लेकिन यह अप्रवासियों की पलायन की भी कहानी है, जो आज तक जारी है.
फ़िल्म का टाइटल 'श्री' और '420' विरोधाभासी लगता है.
शायद राज कपूर और ख़्वाजा अहमद अब्बास यह बताना चाहते थे कि कई बार चालबाज़ और धोखेबाज़ लोग समाज में सम्मानित लोगों की आड़ में ही कहीं छिपे रहते हैं. तभी तो 'श्री' और '420' को मिलाकर बना 'श्री 420'.
आख़िर में, छोटी-सी लेकिन बड़ी बात, इस फ़िल्म के क्रेडिट्स में पहले नरगिस और नादिरा का नाम आता है और फिर राज कपूर का.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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