25 मार्च, 1971 को जैसे ही पाकिस्तानी सेना ने ढाका में आपरेशन सर्चलाइट शुरू किया अवामी लीग के महासचिव ताजुद्दीन अहमद और ढाका के एक नामी वकील अमीरुल इस्लाम भूमिगत हो गए.
ये दोनों पाकिस्तान की नेशनल असेंबली के निर्वाचित सदस्य थे. इन दोनों ने अगले दो दिन ढाका के लालमटिया इलाक़े में बिताए.
यह जगह धानमंडी में शेख़ मुजीबुर रहमान के निवास से ज़्यादा दूर नहीं थी.
इसके बाद उन्होंने भारतीय सीमा की ओर बढ़ना शुरू किया. तीन दिनों तक लगातार पैदल और बैलगाड़ियों पर सफ़र करते हुए वे कुश्तिया ज़िले के उस इलाके में पहुंचे, जो भारतीय सीमा से लगा हुआ है.
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पहले से तय एक स्थान पर उनकी मुलाकात एक बंगाली अफ़सर तौफ़ीक इलाही चौधरी से हुई.
30 मार्च को चौधरी ने सीमा पर तैनात सीमा सुरक्षा बल के अधिकारियों को संदेश भेजा: 'मुजीब के नज़दीकी लोग, अवामी लीग के दो वरिष्ठ नेता, सीमा के पास पहुंच चुके हैं. अगर उनका स्वागत सरकारी मेहमान की तरह किया जाए, तो वे भारत की प्रधानमंत्री से मिलना चाहेंगे.'
बीएसएफ़ अधिकारियों ने यह जानकारी अपने आईजी गोलक मजूमदार को दी.
मजूमदार ने तुरंत यह सूचना दिल्ली में अपने वरिष्ठ अधिकारी के. एफ. रुस्तमजी को दी.
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जब वे वहाँ पहुंचे, तो रात के एक बज चुके थे. उस वक्त तक कोलकाता (उस वक्त कलकत्ता) के सारे होटल और दुकानें बंद हो चुके थे.
रुस्तमजी के पास आकस्मिक यात्रा के लिए कपड़ों की एक किट हमेशा तैयार रहती थी.
उन्होंने उसमें से पाजामे निकालकर अपने मेहमानों को पहनने के लिए दिए.
मजूमदार ने सभी के लिए स्टोव पर आमलेट बनाया. अगले दिन एक आदमी को कलकत्ता की न्यू मार्केट भेजा गया.
वहाँ से ताजुद्दीन अहमद और उनके साथी के लिए रेडीमेड कपड़े खरीदे गए. रुस्तमजी की ख़्वाहिश थी कि उनके लिए सबसे अच्छे कपड़े खरीदे जाएं, क्योंकि वे अपने देश के प्रतिनिधि के तौर पर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने जा रहे थे.
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अगले दिन ताजुद्दीन अहमद, रुस्तमजी के साथ एक विशेष विमान से दिल्ली पहुंचे.
स्टेट्समैन के पूर्व संवाददाता मानश घोष अपनी किताब 'बांग्लादेश वॉर रिपोर्ट फ़्रॉम ग्राउंड ज़ीरो' में लिखते हैं, "इंदिरा गांधी ने ताजुद्दीन अहमद को सलाह दी कि अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति पाने के लिए यह ज़रूरी है कि बांग्लादेश की सरकार को अंतरराष्ट्रीय मीडिया के सामने शपथ दिलाई जाए."
"...और यह शपथ ग्रहण समारोह ऐसी जगह पर हो, जो बांग्लादेशी स्वतंत्रता सेनानियों के नियंत्रण में हो."
इंदिरा गांधी ने वहाँ मौजूद भारतीय अधिकारियों, विशेष रूप से रुस्तमजी को निर्देश दिए कि ताजुद्दीन अहमद और उनकी प्रस्तावित सरकार को सभी ज़रूरी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं.
कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में ली शपथतय किया गया कि नादिया ज़िले से लगे बैद्यनाथताल को बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के शपथग्रहण स्थल के रूप में चुना जाएगा.
17 अप्रैल, 1971 को कलकत्ता में सभी विदेशी पत्रकारों को जुटाया गया और उन्हें बताया गया कि उन्हें एक विशेष कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए एक अज्ञात स्थान पर ले जाया जाएगा.
कलकत्ता से लगभग 60 कारों का काफ़िला बैद्यनाथताल की ओर रवाना हुआ.
मीनाजपुर से अवामी लीग के सांसद प्रोफ़ेसर यूसुफ़ अली ने माइक पर घोषणा की कि बांग्लादेश अब एक स्वतंत्र और प्रभुसत्तासंपन्न गणराज्य है.
उन्होंने ही सैयद नज़रुल इस्लाम को कार्यवाहक राष्ट्रपति और ताजुद्दीन अहमद को कार्यवाहक प्रधानमंत्री के रूप में शपथ दिलाई.
अगले दिन दुनिया के प्रमुख अख़बारों में इस ऐतिहासिक घटना की ख़बर प्रकाशित हुई.
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ताजुद्दीन अहमद का जन्म 23 जुलाई, 1925 को ढाका से 62 किलोमीटर दूर दरदरिया गाँव में हुआ था. वे अवामी लीग के संस्थापक सदस्यों में से एक थे. ताजुद्दीन अहमद को अवामी लीग का 'इंटेलेक्चुअल पावरहाउस' कहा जाता था.
अर्थशास्त्र के मेधावी छात्र रहे ताजुद्दीन अहमद को साठ के दशक में अक्सर साइकिल चलाते हुए शहर में घूमते और आम लोगों से मिलते हुए देखा जाता था. छह सूत्रीय आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें तीन वर्षों तक पाकिस्तानी जेलों में रहना पड़ा था.
ताजुद्दीन अहमद की इंदिरा गांधी से हुई ऐतिहासिक मुलाकात को अवामी लीग के कुछ हल्कों में पसंद नहीं किया गया था.
मानश घोष अपनी किताब मुजीब्स ब्लंडर्स में लिखते हैं, "मुजीब के भतीजे और मुजीब बाहिनी के प्रमुख शेख़ फज़लुल हक़ मोनी ने खुलेआम ताजुद्दीन अहमद के नेतृत्व को चुनौती देते हुए सवाल किया था कि वे किस अधिकार से अवामी लीग के नेता के तौर पर इंदिरा गांधी से मिलने गए थे."
"ताजुद्दीन को नीचा दिखाने के उद्देश्य से उन्होंने पार्टी में ताजुद्दीन के प्रतिद्वंदी मुश्ताक अहमद से हाथ मिला लिया था, हालांकि दोनों में कोई वैचारिक समानता नहीं थी."
ताजुद्दीन और मुश्ताक में खटपटसितंबर 1971 में जब मुश्ताक अहमद बांग्लादेश के प्रतिनिधिमंडल को लेकर संयुक्त राष्ट्र जाने वाले थे, ताजुद्दीन अहमद ने उन्हें उनके पद से हटा दिया था.
मुश्ताक ने इसके लिए उन्हें कभी माफ़ नहीं किया और बाद में यही उनकी हत्या का कारण भी बना.
बांग्लादेश की आज़ादी की लड़ाई के दौरान वो कलकत्ता के 8, थियेटर रोड पर अपने दफ़्तर के बगल में एक छोटे से कमरे में रहते थे.
वे एक साधारण चारपाई पर सोते थे. उनके पास चंद कपड़े थे, जिन्हें वे अपने हाथ से धोते थे.
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16 दिसंबर को बांग्लादेश के आज़ाद होने के छह दिन बाद, 22 दिसंबर को ताजुद्दीन अहमद अपने मंत्रिमंडल के साथ भारतीय वायुसेना के ख़ास हेलिकॉप्टरों से ढाका पहुंचे थे.
हवाई अड्डे से उनकी कारों के काफ़िले को ढाका के गवर्नमेंट हाउस ले जाया गया था.
ताजुद्दीन की अनुपस्थिति में, उनके धानमंडी स्थित दोमंज़िला घर को पाकिस्तानी सेना ने तोड़कर लूट लिया था. ताजुद्दीन अहमद ने शुरुआती दिनों में गवर्नमेंट हाउस में ही रहकर बांग्लादेश का शासन चलाया था.
ताजुद्दीन को यह अंदाज़ा था कि उनमें शेख़ मुजीब जैसा करिश्मा नहीं था और न ही उन्हें शेख़ जैसा जन समर्थन हासिल था.
पार्टी में शेख़ मोनी और मुश्ताक अहमद जैसे उनके प्रतिद्वंद्वी यह ख़बर फैलाने में लगे थे कि ताजुद्दीन बांग्लादेश की आज़ादी के बाद बहुत महत्वाकांक्षी हो गए हैं और वे नहीं चाहते कि शेख़ मुजीब पाकिस्तानी जेल से छूटकर लौटें.
मानश घोष लिखते हैं, "ताजुद्दीन इस दुष्प्रचार से इतने दुखी हुए कि उनकी आँखों से आँसू बह निकले. उन्होंने अपने नज़दीकी सहयोगी नूरुल क़ादेर से कहा, 'बहुत अच्छा होता अगर मैं बांग्लादेश की आज़ादी के बाद मर जाता, ताकि मुझे ये झूठी कहानियाँ न सुननी पड़तीं, जिनमें मुजीब भाई के लिए मेरी निष्ठा पर सवाल उठाए गए.'"
मुजीब ने ताजुद्दीन से प्रधानमंत्री पद छोड़ने के लिए कहाजब 9 जनवरी को शेख़ मुजीब पाकिस्तानी जेल से छूटकर ढाका पहुंचे, तो लाखों लोगों के साथ ताजुद्दीन अहमद भी उनके स्वागत के लिए हवाई अड्डे पर मौजूद थे.
उन्होंने मुजीब को देखते ही गले लगा लिया, उनकी आँखों से आँसू बहने लगे.
शेख़ मुजीब जितनी जल्दी हो सके, बांग्लादेश के प्रधानमंत्री का पद संभाल लेना चाहते थे.
मानश घोष लिखते हैं, "जब शेख़ मुजीब को फूलों से लदे ट्रक से हवाई अड्डे से ढाका शहर ले जाया जा रहा था, उन्होंने ताजुद्दीन के कानों में फुसफुसाकर कहा था कि वे प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं."
"अगले दिन सुबह ही वे लुंगी और कुर्ता पहने ताजुद्दीन के घर पहुंचे और बोले कि वे उनके प्रधानमंत्री पद संभालने की व्यवस्था करें. ढाका में चारों ओर इस परिवर्तन को लेकर संदेह का माहौल था. लोग दबी ज़ुबान में सवाल कर रहे थे कि देश का प्रधानमंत्री बदलने की इतनी जल्दी भी क्या है? लोग इस जल्दबाज़ी को पचा नहीं पा रहे थे."
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बहरहाल, ताजुद्दीन ने इस्तीफ़ा देने में देर नहीं लगाई. शेख़ मुजीब ने प्रधानमंत्री का पद संभाला और उन्होंने ताजुद्दीन अहमद को अपना वित्त मंत्री बनाया.
हालांकि बहुत से लोग उम्मीद कर रहे थे कि उनकी प्रतिष्ठा को देखते हुए मुजीब उन्हें उप-प्रधानमंत्री तो बनाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
वित्त मंत्री के रूप में वे नए आज़ाद हुए देश के पुनर्निर्माण में जुट गए. सन 1974 में उनकी अमेरिका यात्रा की काफी चर्चा हुई.
सैयद बदरुल अहसन अपनी किताब 'ग्लोरी एंड डिस्पेयर द पॉलिटिक्स ऑफ़ ताजुद्दीन अहमद' में लिखते हैं, "जब विश्व बैंक के अध्यक्ष रॉबर्ट मैकनामारा ने उनसे पूछा कि विश्व बैंक बांग्लादेश की किन ज़रूरतों को पूरा कर सकता है, तो उन्होंने बिना किसी संकोच के जवाब दिया कि उन्हें खेती करने के लिए बैलों और हलों से बाँधने के लिए रस्सियों की ज़रूरत है."
शेख़ मुजीब और ताजुद्दीन के बीच दूरी बढ़ती चली गई. 26 अक्तूबर, 1974 को बांग्लादेश के कैबिनेट सचिव तौफ़ीक इमाम दो लिफ़ाफ़े लेकर ताजुद्दीन अहमद के दफ़्तर में आए.
मानश घोष लिखते हैं, "एक लिफ़ाफ़े में मुजीब का पत्र था, जिसमें लिखा हुआ था कि राष्ट्रीय हित को देखते हुए आपसे तुरंत प्रभाव से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा जाता है."
"दूसरे लिफ़ाफ़े में टाइप किया हुआ आपका त्यागपत्र भेजा जा रहा है. आप इस पर दस्तख़त कर इस पत्र को ले जाने वाले को दे दीजिए."
ताजुद्दीन अहमद ने मुस्कराते हुए उस त्यागपत्र पर दस्तख़त किए और कैबिनेट सचिव के हवाले कर दिया.
बांग्लादेश में ताजुद्दीन अहमद से ज़बरदस्ती इस्तीफ़ा लिए जाने को आने वाले संकट के संकेत के रूप में देखा गया.
ताजुद्दीन की गिरफ़्तारी
15 अगस्त, 1975 को जब शेख़ मुजीबुर रहमान की उनके परिवार समेत हत्या कर दी गई और खोंडकर मुश्ताक अहमद बांग्लादेश के नए राष्ट्रपति बने, तो ताजुद्दीन अहमद को उनके घर में नज़रबंद कर दिया गया.
जब ताजुद्दीन अहमद, सैयद नज़रुल इस्लाम, कैप्टन मंसूर अली और ए.एच. कमरुज़्ज़मां ने खोंडकर मुश्ताक अहमद के मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार कर दिया, तो उन्हें ढाका सेंट्रल जेल भेज दिया गया.
सलिल त्रिपाठी अपनी किताब 'द कर्नल हू वुड नॉट रिपेंट' में लिखते हैं, "2–3 नवंबर, 1975 की रात को, जब बांग्लादेश में सैनिक तख्तापलट हुआ, तो बंग भवन से जेल के इंस्पेक्टर जनरल मोहम्मद नूरुज़्ज़मां के पास फ़ोन आया कि सैनिक वर्दी में कुछ लोग ढाका जेल में आएंगे. उन्हें जेल में बंद राजनीतिक कैदियों के पास ले जाया जाए."
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कुछ ही क्षणों में मोस्लेउद्दीन के नेतृत्व में काले कपड़े पहने हुए सैनिक ढाका जेल पहुंच गए.
सलिल त्रिपाठी लिखते हैं, "चारों क़ैदियों को जगाकर दूसरे कैदियों से अलग किया गया. ताजुद्दीन और नज़रुल एक कमरे में छह कैदियों के साथ बंद थे. उन दोनों और मंसूर अली और क़मरुज़्ज़मां को दूसरे कमरे में ले जाया गया."
"जेलर अमीनुर रहमान से कहा गया कि वो इन क़ैदियों की पहचान करें. ताजुद्दीन की समझ में सारा माजरा आ गया. उन्होंने जेलर से नमाज़ पढ़ने की इजाज़त माँगी. जेलर ने इसकी इजाज़त दे दी. नमाज़ पूरी होते ही कैप्टन और उसके साथियों ने उन चारों पर गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं."
अवामी लीग के चारों नेता ज़मीन पर गिर गए. ये हत्याएं जेल के अंदर जेल अधिकारियों के सामने की गई थीं.
जब सैनिक इन चारों को मारने के बाद वापस चले गए तो जेल स्टाफ़ ने बंग भवन फ़ोन कर बताया था कि ताजुद्दीन अहमद और कैप्टन मंसूर अली जीवित हैं और पानी माँग रहे हैं.
मानष घोष लिखते हैं, "मुश्ताक ने आदेश दिया कि सैनिक दोबारा जेल जाकर सुनिश्चित करें कि वो जीवित नहीं हैं. सैनिकों ने वापस जेल जाकर ताजुद्दीन और मंसूर अली को मार डाला."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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