इस साल मई-जून के महीने में देश के कई इलाक़ों में भीषण हीट वेव देखी गई. अब पंजाब, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश समेत देश के कई इलाक़े भारी बारिश और बाढ़ का सामना कर रहे हैं.
पिछले दो महीनों में मौसम से जुड़ी घटनाओं में देश के अलग-अलग हिस्सों में 500 से अधिक लोगों की मौत हुई है और कई लापता हैं. इनमें मौसम में आए बदलाव की वजह से हुए सड़क हादसों में मारे गए लोग भी शामिल हैं.
बीते कुछ दिनों में मौसम विभाग ने उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और जम्मू-कश्मीर के लिए भारी बारिश के अलर्ट जारी किए.
मौसम में इस बदलाव को वैज्ञानिक और विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देख रहे हैं.
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विश्लेषकों के मुताबिक़, हीट वेव और मानसून के पैटर्न में हो रहे बदलाव का कारण पृथ्वी का गर्म होना है.
भारत के मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक डॉ. केजे रमेश बीबीसी से कहते हैं, "इन एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स और जलवायु परिवर्तन में सीधा संबंध है."
ग्रीनपीस से जुड़े शोधकर्ता आकिज़ भट भी मानते हैं कि अभी मौसम की वजह से जो आपदाएं आ रही हैं, ये सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन का असर है.
वहीं, भारत के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के पूर्व सचिव डॉ. राजीवन माधवन नायर ने एक बयान में कहा, "1950 से 2015 के बीच मध्य भारत में एक दिन में 150 मिलीमीटर से अधिक वर्षा की घटनाएं 75 फ़ीसदी तक बढ़ गई हैं. साथ ही, शुष्क अवधि भी पहले से अधिक लंबी हो रही है."
भारत के मौसम विभाग के महानिदेशक डॉ. मृत्युंजय महापात्रा ने बीते शनिवार को जारी एक बयान में कहा, "भारी बारिश की वजह से बादल फटने, भूस्खलन और सड़क धंसने की घटनाएं हो सकती हैं. कई नदियां उत्तराखंड से निकलती हैं, ऐसे में भारी बारिश का प्रभाव निचले इलाक़ों पर पड़ सकता है."
पहाड़ों पर हो रही भारी बारिश की वजह से राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी बाढ़ आने की आशंका ज़ाहिर की गई है और प्रशासन अलर्ट पर है.
उत्तराखंड पर मौसम की मार
उत्तराखंड में 1 सितंबर को भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) की चेतावनी के बाद कई ज़िलों में रेड अलर्ट जारी किया गया. प्रशासन ने एहतियातन सभी सरकारी-ग़ैर सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों को बंद रखने के आदेश दिए हैं.
बीबीसी के सहयोगी पत्रकार आसिफ़ अली के मुताबिक़, अगस्त महीने में भारी बारिश और बादल फटने की घटनाओं ने राज्य में जनजीवन अस्त-व्यस्त कर दिया है और कई इलाक़ों में लोग बेहाल हैं.
पांच अगस्त को उत्तरकाशी के हर्षिल और धराली गांव में अचानक आए सैलाब से दो लोगों की मौत और 67 लोग (सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़) लापता हुए.
कई घरों और होटलों के साथ सेना का कैंप भी बह गया. प्रभावित लोगों तक राहत सामग्री हेलीकॉप्टर से पहुंचाई जा रही है और वैकल्पिक सड़क बनाकर गंगोत्री राजमार्ग हाल ही में खोला गया है.
वहीं, 21 अगस्त को यमुनोत्री धाम मार्ग पर स्यानाचट्टी में यमुना नदी में अचानक झील बन गई. क़रीब 150 लोगों को सुरक्षित स्थानों पर भेजा गया. यहां भी निचले इलाकों के मकानों और होटलों में पानी भर गया.
23 अगस्त को चमोली के थराली तहसील में बादल फटने से एक व्यक्ति लापता हुआ और एक महिला मलबे में दब गई. कई घर और दुकानें क्षतिग्रस्त हुईं और प्रमुख सड़कें बंद रहीं.
29 अगस्त को चमोली, रुद्रप्रयाग और बागेश्वर ज़िलों में भारी बारिश और फ्लैश फ्लड (तेज़ी से बाढ़ आना) से कई मौतें हुईं और नुक़सान हुआ.
इन प्राकृतिक आपदाओं का असर लोगों के जीवन और कारोबार पर भी पड़ रहा है.
उत्तरकाशी के एक होटल कारोबारी समीर ने बीबीसी हिन्दी को बताया कि आए दिन तेज़ बारिश के चलते उनके कारोबार पर खासा असर पड़ा है.
वह कहते हैं कि बारिश की वजह से उनके होटल की बुकिंग कैंसिल हो रही है.
समीर का कहना है, "इस साल पूरा धंधा ही चौपट हो गया है, ऐसा लगता है कि इस बार स्टाफ़ को सैलरी भी जेब से ही देनी पड़ेगी."
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केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर प्रकृति की मार झेल रहा है. बीते कई दिनों से जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग इलाक़ों में बादल फटने की घटनाओं में 100 से अधिक लोग मारे गए हैं. सबसे ज़्यादा घटनाएं जम्मू क्षेत्र में हुई हैं.
किश्तवाड़ के चासोटी गांव में 60 से अधिक लोग बादल फटने की घटना में मारे गए. यहां कई लोग अब भी लापता हैं. जम्मू के कटरा में भी भूस्खलन की घटना में 35 लोग मारे गए.
लगातार हो रही भारी बारिश की वजह से जम्मू शहर के कई इलाक़ों में बाढ़ का पानी भर गया है. इससे मकानों को भारी नुक़सान हुआ है.
भूस्खलन की वजह से फ़सलों को नुक़सान हुआ है. सड़कें और पुल बह जाने से कई इलाक़ों में आवागमन ठप हो गया है. जम्मू और श्रीनगर के बीच नेशनल हाइवे भी बंद है. यहां मरम्मत पूरी होने में महीने भर का वक़्त लग सकता है.
बीबीसी संवाददाता माजिद जहांगीर के मुताबिक़, भारी बारिश और बाढ़ की वजह से दूर-दराज़ के कई इलाकों में लोगों से संपर्क नहीं हो पा रहा है. बिजली आपूर्ति भी प्रभावित हुई है.
वहीं मौसम विभाग ने अगले तीन दिनों के लिए भारी बारिश की चेतावनी दी है, जिससे लोग चिंतित हैं.
पंजाब में तीन दशक बाद बाढ़ ने मचाई तबाहीबीबीसी संवाददाता सरबजीत सिंह धालीवाल के मुताबिक़, लगातार हो रही भारी बारिश और बाढ़ की वजह से पंजाब के कई इलाक़ों में हालात मुश्किल बने हुए हैं.
मौसम से जुड़ी घटनाओं में पंजाब के अलग-अलग इलाक़ों में अब तक कम से कम 29 लोगों की मौत हुई है और 12 ज़िले बाढ़ से प्रभावित हैं. 15 हज़ार से अधिक लोगों को सुरक्षित निकाला गया है. क़रीब एक लाख हेक्टेयर कृषि भूमि बाढ़ के पानी में डूबी है.
सरबजीत के मुताबिक़, रावी नदी में बहाव काफ़ी तेज़ है और इसकी वजह से नदी के किनारे वाले इलाक़ों में लोगों में ख़ौफ़ है.
कपूरथला के क़रीब 16 गांव पानी में डूबे हैं. फाज़िल्का, तरनतारन, गुरदासपुर, पठानकोट और अमृतसर समेत कई ज़िलों में हालात लगातार ख़राब हो रहे हैं.
पंजाब में राज्य के आपदा राहत दल के अलावा भारतीय सेना और केंद्र सरकार की एजेंसियां राहत और बचाव कार्य में जुटी हैं.
बीबीसी संवाददाता सरबजीत धालीवाल के मुताबिक़, बारिश के अलर्ट ने लोगों में और चिंताएं पैदा कर दी हैं.
पंजाब में आख़िरी बार इतने बड़े पैमाने पर बाढ़ 37 साल पहले 1988 में आई थी. हाल के सालों में बाढ़ के न आने से आपदा प्रबंधन को लेकर भी राज्य में बहुत अधिक तैयारी नहीं थी.
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हिमाचल प्रदेश में 20 जून के बाद मौसम से जुड़ी त्रासदियों और घटनाओं में अब तक 300 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है.
राज्य के आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक़, प्राकृतिक आपदाओं की वजह से 1280 से अधिक घर और दुकानें ध्वस्त हो गई हैं. आपदाओं की वजह से राज्य को भारी आर्थिक नुक़सान भी हुआ है.
भूस्खलन, बारिश और बाढ़ की वजह से राज्य में कई सड़कें प्रभावित हुई हैं. 20 जून से हो रही लगातार बारिश की वजह से राज्य में फ्लैश फ्लड की 55, बादल फटने की 28 और भूस्खलन की 48 घटनाएं हुईं.
राजधानी शिमला में भूस्खलन में कई मकान बर्बाद हो गए. अगस्त के आख़िरी हफ़्ते में भी राज्य में भारी बारिश हुई. अब अगले तीन दिन के लिए भारी बारिश का अलर्ट जारी किया गया है.
हिमाचल प्रदेश के लिए ये साल पिछले कुछ सालों में मौसम के लिहाज़ से सबसे मुश्किल रहा है.
क्या कह रहे हैं विशेषज्ञ?
विशेषज्ञों के मुताबिक़ भीषण गर्मी पहले भी पड़ती थी और भारी बारिश भी होती थी लेकिन पिछले कुछ सालों से इसकी इंटेंसिटी और फ्रीक्वेंसी दोनों बढ़ी हैं.
ग्रीनपीस से जुड़े आकिज़ भट कहते हैं, "पिछले डेढ़ दशक में तापमान में निरंतर वृद्धि देखी गई है, ख़ासकर हीट वेव के मामले में. इससे एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स की फ्रीक्वेंसी और इंटेंसिटी बढ़ रही है."
भारत के मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक और मौसम विज्ञानी डॉ. केजे रमेश भी इससे सहमत हैं.
डॉ. रमेश कहते हैं, "हर सीजन में अलग-अलग तरह का एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट होता है. गर्मी में हीट वेव, सूखे क्षेत्रों में जंगल में आग लगने जैसी घटनाएं हो सकती हैं. लेकिन अब इनकी दर बढ़ रही है. इसका सीधा संबंध ग्लोबल वॉर्मिंग से है. अगर तापमान एक डिग्री बढ़ता है तो वायुमंडल की नमी और भाप को रखने की क्षमता 7 प्रतिशत बढ़ जाती है. इस वजह से बड़े क्लाउड बनते हैं जो ज़्यादा बारिश और बिजली का कारण बनते हैं."
दुनिया भर के परमाणु वैज्ञानिक ग्लोबल वॉर्मिंग को लेकर सहमत हैं और इसका सबसे बड़ा कारण वायुमंडल में बढ़ती कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीन हाउस गैसों की बढ़ती मात्रा को माना जाता है.
आकिज़ भट कहते हैं, "कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा, जो मुख्यतः फॉसिल फ्यूल के जलने से निकलती है, हमारे वातावरण में नमी बढ़ाती है जिससे मानसून और बारिश के पैटर्न प्रभावित हो रहे हैं."
डॉ. केजे रमेश का कहना है, "मानसून में पहले भी भारी बारिश होती थी. लेकिन पहले मानसून के दौरान बारिश की अवधि लंबी होती थी. अब तीव्र और कम अवधि की बारिश होती है जिससे बाढ़ का ख़तरा बढ़ जाता है."
आकिज़ भट कहते हैं, "ग्लोबल और रीज़नल टेम्परेचर दोनों बढ़ रहे हैं और भारत हीट वेव के लिए एक अच्छा उदाहरण है. बदल रहे मौसम की मार आज भारत के लोगों पर पड़ रही है."
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दिल्ली जैसे घनी आबादी वाले शहरों में अब कुछ घंटे की बारिश के बाद ही जलभराव की स्थिति बन जाती है. विशेषज्ञ मानते हैं कि इसकी बड़ी वजह हरे-भरे जंगलों और खाली ज़मीन की जगह कंक्रीट की इमारतों का कब्ज़ा है.
ग्रीनपीस से जुड़े आकिज़ भट कहते हैं, "शहरी विकास ने ग्रीन स्पेस कम कर दिया है. नतीजा यह हुआ कि बारिश का पानी ज़मीन में सही से समा नहीं पाता और फ्लडिंग जैसी स्थिति पैदा हो जाती है."
प्रकृति की अनदेखी के गंभीर नतीजे पहाड़ों में और स्पष्ट दिखाई देते हैं. उत्तराखंड का धराली कस्बा, जो पहले क्षीरगंगा नदी के इलाक़े में बसा था, भूस्खलन की चपेट में आकर लगभग बह गया.
भारत मौसम विभाग के पूर्व महानिदेशक डॉ. केजे रमेश कहते हैं, "धराली बाज़ार जिस जगह बसा था, वहां पहले पानी का प्राकृतिक बहाव होता था. सवाल यह है कि प्रकृति की अनदेखी कर ऐसा विकास क्यों होने दिया गया? अगर लोग वहां बस भी रहे थे तो क्या उन्हें जोख़िम के बारे में पर्याप्त जागरूकता थी?"
विशेषज्ञ मानते हैं कि अंधाधुंध विकास ने प्राकृतिक जल स्रोतों को निगल लिया है. शहरों में मौजूद झीलें और वॉटर बॉडी अब इमारतों में बदल गई हैं. ऐसे में कुछ घंटों की बारिश से ही सड़कें तालाब जैसी दिखने लगती हैं और शहर ठप हो जाते हैं.
पिछले कुछ दशकों में पहाड़ी क्षेत्रों में सड़क निर्माण और चौड़ीकरण का काम तेज़ी से हुआ है. सरकार का कहना है कि यह विकास, सामरिक और सामाजिक-आर्थिक कारणों से ज़रूरी है और निर्माण कार्यों में पर्यावरण का ध्यान रखा जाता है. इसी क्रम में हिमालयी क्षेत्र में "ऑल वेदर रोड" परियोजनाओं पर काम जारी है.
हालाँकि विश्लेषक इन सड़कों और हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं को पहाड़ों पर बढ़ते भूस्खलन और अचानक बाढ़ (फ्लैश फ्लड) की घटनाओं से जोड़कर देखते हैं.
डॉ. रमेश कहते हैं, "हाइड्रोइलेक्ट्रिक और रोड डेवलपमेंट की वजह से ढलानों की स्थिरता (स्लोप स्टेबिलिटी) बिगड़ रही है, जो भूस्खलन का बड़ा कारण है."
उनके अनुसार, भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाएँ पहले से ही पर्वतीय स्थिरता को चुनौती देती हैं, और मानव गतिविधियों ने इस जोखिम को और बढ़ा दिया है.
आकिज़ भट सवाल उठाते हैं, "सोचना यह चाहिए कि हम ऐसा विकास किस कीमत पर कर रहे हैं."
अलर्ट सिस्टम प्रभावी क्यों नहीं?
भारत के मौसम विभाग ने हाल के सालों में मौसम से जुड़ी सटीक भविष्यवाणी करने को लेकर विश्वसनीयता हासिल की है.
सैटेलाइट और रिसर्च तकनीक बेहतर हुई है. ऐसे में मौसम विभाग समय रहते अलर्ट दे पा रहा है.
गृह मंत्री अमित शाह ने हाल ही में एक बयान में कहा, "हमने बारिश और बाढ़ की पूर्व सूचना अवधि में सुधार किया है और हम शून्य मृत्यु-दर के दृष्टिकोण से आपदा प्रबंधन को आगे बढ़ा रहे हैं."
भारत में सचेत ऐप भी है जिसके ज़रिए आपदा प्रबंधन और मौसम विभाग से जुड़े अधिकारी देश के किसी भी ख़ास इलाक़े में तुरंत लोगों के मोबाइल पर अलर्ट भेज सकते हैं.
इन सब उपायों के बावजूद भारत में मौसम से जुड़ी घटनाओं में लगातार लोगों की जानें जा रही हैं.
डॉ. केजे रमेश कहते हैं, "चक्रवात या सूनामी की चेतावनी के समय ये व्यवस्था काफ़ी कारगर होती है, लेकिन अभी बाढ़ और भूस्खलन जैसी आपदाओं के समय इसके बेहतर उपयोग की ज़रूरत है."
केजे रमेश कहते हैं, "जो इलाक़े जोख़िम भरे हैं, वहां बसावट और अवैध कब्ज़े को रोकना चाहिए और लोगों को इनके जोख़िम के बारे में जागरूक करना ज़रूरी है. क्लाइमेट चेंज का प्रभाव स्थानीय है इसलिए पंचायत स्तर से जागरूकता और संरक्षण के प्रयास ज़रूरी हैं."
विश्लेषकों के मुताबिक़ एक कारण जलवायु को लेकर रणनीति का नहीं होना भी है.
आकिज़ भट कहते हैं, "क्लाइमेट एडाप्टेशन स्ट्रैटेजी या तो मौजूद नहीं हैं या लागू नहीं हो रही हैं, जिससे हम एक्स्ट्रीम वेदर इवेंट्स के प्रभाव को कम नहीं कर पा रहे."
वहीं आकिज़ भट मानते हैं कि इसके लिए नीतिगत प्रयासों की भी ज़रूरत है.
आकिज़ कहते हैं, "फॉसिल फ्यूल इंडस्ट्रीज़ के बिना जवाबदेही के क्लाइमेट चेंज की स्थिति और ज़्यादा गंभीर हो रही है. जो लोग जलवायु परिवर्तन के कारण प्रभावित होते हैं, खासकर बाढ़, सूखे और हीट वेव्स में, उनके नुक़सान की भरपाई के लिए उन कंपनियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए जो ग्लोबल वॉर्मिंग के लिए ज़िम्मेदार हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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