एक दौर था, जब लोग दरवाजे खटखटाकर साबुन, सर्फ, तेल जैसी चीजें बेचते थे. 1980 के दौर में जब आप इस पेशे का जिक्र करेंगे तो लोग किसी सेल्समैन का नहीं बल्कि एक युवा लड़की का चेहरा याद करेंगे. "मिस चमको" का चेहरा, जो 1980 में आई फिल्म 'चश्मे बद्दूर' में एक किरदार का नाम था.
इसे निभाया था दीप्ति नवल ने. वैसे तो फिल्म में उनका नाम नेहा था, लेकिन चूंकि वो फिल्म में चमको नाम का एक वॉशिंग पाउडर बेचने वाली लड़की का किरदार निभा रही थीं इसलिए उन्हें फ़िल्म के हीरो फ़ारूक़ शेख़ 'मिस चमको' कहकर बुलाते थे.
ये किरदार उस दौर में इतना पॉपुलर हुआ कि दीप्ति नवल रातोंरात स्टार बन गईं. जो फिल्म आपको रातोंरात स्टार बनाए वो किसी के लिए भी खास होगी, लेकिन दीप्ति नवल इस राय से पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखतीं.
वो कहती हैं कि इंसान की शख्सियत में कई परतें होती हैं. उसे किसी एक चीज से बांधकर नहीं रखना चाहिए.
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उनके इस ख्याल पर बीबीसी हिंदी की ख़ास पेशकश 'कहानी ज़िंदगी की' में इरफ़ान ने दीप्ति नवल के साथ और विस्तार में बात की है.
इसके अलावा दीप्ति ने पहली फिल्म और स्ट्रगल से लेकर शादी टूटने और उसकी वजह से डिप्रेशन में जाने पर भी बात की है.
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दीप्ति अमृतसर में पैदा हुईं, वहीं पली बढ़ीं. उनके पिता हिंदू कॉलेज में इंग्लिश के प्रोफेसर थे. उनकी मां पेंटर और स्कूल टीचर भी थीं. उनकी एक बड़ी बहन हैं स्मिती और उनसे 8 साल छोटे भाई रोहित. दोनों इस समय अमेरिका में अपने परिवार के साथ रह रहे हैं.
परिवार के बारे में बात करते हुए दीप्ति बताती हैं कि उनके माता-पिता को दो बार विस्थापन से गुज़रना पड़ा. बर्मा में जापानी हमले के बाद परिवार लाहौर (अब पाकिस्तान) में आकर बस गया.
उन्हें भारत के विभाजन के बाद एक बार फिर विस्थापित होना पड़ा. आख़िरकार उनका परिवार पंजाब में सेटल हुआ.
माता- पिता के टीचिंग प्रोफेशन में होने की वजह से दीप्ति के घर में हमेशा पढ़ाई लिखाई का माहौल ही रहा. वो बताती हैं, "पिताजी के आने की घंटी बजती थी. हम लोग झट से किताबें लेकर बैठ जाते थे."
"हमारे डाइनिंग टेबल पर हमेशा बायरन और कीट्स की कविताओं पर चर्चा होती थी. इसलिए मेरी भी दिलचस्पी साहित्य में पैदा हो गई."
"मां को डांस ड्रामा भी खूब पसंद था. वो गाना गाती थीं, प्ले भी करती थीं. इस वजह से कला को लेकर मेरे अंदर बचपन में ही दिलचस्पी पैदा हो गई थी."
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साहित्य से फिल्मों में कैसे दिलचस्पी आई? इस सवाल पर दीप्ति बताती हैं, "उस समय फिल्में ही एंटरटेनमेंट का ज़रिया थीं. हम कोई फिल्म नहीं छोड़ते थे. क्लासेज छोड़कर फिल्में देखने जाते थे."
"1960-1970 में टेलीविजन का दौर आया. उस पर चित्रहार, किसानों और फौजियों पर प्रोग्राम आता था. लेकिन हमें फिल्में ही पसंद थीं. रविवार को फिल्में आती थीं हम वो देखते थे. गाने तो हर दिन देखते थे.
फिल्मों में एक्टिंग करनी है ये ख्याल मन में कैसे आया? दीप्ति इसका क्रेडिट बलराज साहनी को देती हैं.
एक किस्सा साझा करते हुए दीप्ति ने बताया, "1960 की बात है. मेरी उम्र 9 साल रही होगी. बलराज साहनी एक प्ले परफॉर्म करने अमृतसर आये थे. पंजाबी प्ले था, नाम था "कनक दी बल्ली".
"प्ले ख़त्म होने के बाद मेरे पिता मुझे बलराज साहनी के पास ऑटोग्राफ दिलाने ले गए. ऑटोग्राफ़ देते हुए उन्होंने (बलराज साहनी) कहा, "माई डियर अगर मैं ऐसे ही ऑटोग्राफ्स देता रहूंगा तो मेरी ट्रेन छूट जाएगी."
दीप्ति हंसते हुए बताती हैं, "ये सुनकर मैं सोचने लगी, उन्होंने मुझे माई डियर बोला, ये तो हमारे अपने ही हैं."
"एक्टिंग का मेरा सपना पन्ने पर उस ऑटोग्राफ से ही शुरू हुआ. मैंने उस अपने ऑटोग्राफ को पूंजी की तरफ संभाल कर रखा."
"मैं उनकी शख्सियत से काफी प्रभावित थी. दिखने में सुंदर, आकर्षक. खुद को कैरी करने का बिल्कुल अलग तरीका. मैंने ठान लिया कि जब मैं एक्ट्रेस बनूंगी, फिल्मों में अपना नाम कमाऊंगी तो मेरा पर्सोना भी ऐसा ही होगा."
"11 साल की उम्र में मैंने तय कर लिया कि मुझे एक्टिंग करनी है और यही मेरा पेशा होगा."
शीशे से ली फ़िल्मों की ट्रेनिंग
दीप्ति ने फिल्मों के लिए कोई फॉर्मल ट्रेनिंग नहीं ली. वो बताती हैं कि उन्होंने शीशे के सामने बहुत समय बिताया है और उस शीशे ने उन्हें बहुत सिखाया है.
"शीशे के सामने मैंने खुद को बहुत गहराई से ऑब्जर्व किया है. जब कोई नहीं देख रहा होता तो मैं हमेशा शीशे के सामने ही रहती थी. मैंने जाना कि मेरे अंदर इमोशन को जाहिर करने वाली संवेदनशीलता है.
"मुझे लगता है यही सही लर्निंग है. मैंने काफी ट्रेंड, स्किल्ड एक्टर्स को देखा है लेकिन, एक एक्टर के लिए लाइफ से ज़्यादा बेहतर ट्रेनर कोई नहीं है."
लेकिन वो एक्टिंग ट्रेनिंग के फायदों को खारिज भी नहीं करती. वो कहती हैं कि ट्रेनिंग से आपमें कॉन्फिडेंस आता है.
दीप्ति कहती हैं, "ट्रेन्ड एक्टर्स को देखकर कई बार ख्याल आता है कि अगर मैंने ट्रेनिंग ली होती तो मैं क्या-क्या और कर सकती थी. ट्रेनिंग होती तो मेरे पास एक कैरेक्टर को प्ले करने के लिए और बेहतर हथियार होते."
"लेकिन मुझे कभी ऐसा नहीं महसूस हुआ कि मेरे अंदर किसी चीज की कमी है. मैं हमेशा से यही मानती हूं कि मैं एक्टिंग के लिए ही पैदा हुई हूं."
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अमेरिका में ग्रेजुएशन पूरी करके दीप्ति ने जीन फ्रैंकल इंस्टीट्यूट जॉइन कर लिया. वहां वो टीवी, कैमरा सीखने जाती थीं और एक रेडियो प्रोग्राम भी करती थीं. उसी दौरान उनकी मुलाकात राज कपूर, सुनील दत्त, दिलीप कुमार, हेमंत कुमार से हुई.
"फिल्मों में मेरी शुरुआत बहुत आसान रही. चश्मे बद्दूर के बाद मैं रातों रात स्टार बन गई. मैं और फारूक़ तो छा गए थे."
दीप्ति ने इस दौरान कई अच्छे-अच्छे रोल किए. कथा और अंगूर जैसी फिल्में कीं. लोगों ने पसंद भी किया.
वो बताती हैं, "4-5 फिल्में करने के बाद मेरा स्ट्रगल शुरू हुआ. मुझे लगा मैं तो हल्के रोल ही करते रह जाऊंगी. मुझे कुछ और करना है."
"मैंने 6 महीने तक कोई फिल्म नहीं साइन की. सारी फिल्मों को ना करती रही. मैं ऐसी फिल्में करना चाहती थी जो लोगों के ज़ेहन में कोई छाप छोड़े."
इस फैसले के पीछे की वजह पर बात करते हुए दीप्ति कहती हैं, "बचपन में मैंने अब दिल्ली दूर नहीं, स्कूल मास्टर, गाइड, संगम, मदर इंडिया जैसी फिल्में देखीं थीं. मेरा भी ऐसी ही फिल्में करने का मन था, जो मुझे नहीं मिल रही थीं."
अपना ही फैसला पड़ा भारी, नहीं मिलीं फ़िल्मेंदीप्ति फिल्मों को इंकार करते जा रही थीं और एक समय ऐसा आया कि उनके हाथ में कोई फ़िल्म ही नहीं बची.
दीप्ति कहती हैं, "मैं ऋषि कपूर और पद्मिनी कोल्हापुरी के साथ 'ये इश्क नहीं आसान' की शूटिंग कर रही थी. आखिरी शॉट लिया गया. पैकअप हुआ, सब जा चुके थे. बस मैं बची थी. खड़े-खड़े मुझे ख्याल आया कि मेरे पास एक भी फिल्म नहीं है."
वो आगे कहती हैं, "ये था तो मेरा ही किया कराया. लेकिन इस ख्याल से मुझे भारी झटका लगा."
"मैं सोच रही थी कि मैं तो पूरी जिन्दगी सिनेमा के नाम लिख कर अमेरिका से वापस आ गई हूं. सफल भी हो गई, स्टार भी बन गई, सब हो गया. और अब एक ये समय है जिसमें सिर्फ अंधेरा है. किस चीज के सहारे आगे बढ़ूं."
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दीप्ति के लिए ये डिप्रेशन, अंधेरे का दौर था. लेकिन फिर चीजें बदलीं. उन्होंने कमला और अनकही जैसी फिल्में कीं, वो फिल्में जिसका उन्हें लंबे अरसे से इंतजार था.
वो बताती हैं, "कमला के लिए मैं बहुत उत्साहित थी. वो बिल्कुल वैसा रोल था जैसा मैं करना चाह रही थी."
"उसके बाद अमोल पालेकर से डायरेक्ट की हुई फिल्म अनकही मिली. उसमें थोड़ी पागल सी लड़की का रोल था. ये रोल करके मुझे बहुत खुशी मिली."
दीप्ति इसे अपने फिल्मी करियर का सेकेंड फेज कहती हैं, जो उनका पसंदीदा फेज भी था.
शादी नहीं चली तो फिर डिप्रेशन में चली गईंइसी बीच उनकी मुलाकात प्रकाश झा से हुई, उनकी फिल्म 'हिप हिप हुर्रे', साइन की. बाद में दोनों ने शादी कर ली लेकिन, उनकी शादी अधिक समय तक चली नहीं.
दीप्ति बताती हैं कि शादी के बाद के 2-3 साल बहुत भारी थे. उन्होंने बताया, "जैसा सोचा था चीजें वैसी नहीं हो रही थीं. हम दोनों के बीच बातचीत बिल्कुल बंद हो गई थी. शादी नहीं चली तो मैं डिप्रेशन में चली गई."
"बतौर सेलेब्रिटी आप साइकेट्रिस्ट (मनोचिकित्सक) के पास जाने से बचते हैं. चूंकि, मैंने डिप्रेशन वाले लोगों के साथ समय बिताया है. इसलिए मैंने तय किया कि मैं खुद ही खुद की मदद करूंगी."
महत्वपूर्ण जानकारी:
मानसिक समस्याओं का इलाज दवा और थेरेपी से संभव है. इसके लिए आपको मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए, आप इन हेल्पलाइन से भी संपर्क कर सकते हैं-
समाजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्रालय की हेल्पलाइन- 1800-599-0019 (13 भाषाओं में उपलब्ध)
इंस्टीट्यूट ऑफ़ ह्यमूनबिहेवियरएंड एलाइड साइंसेज-9868396824, 9868396841, 011-22574820
हितगुजहेल्पलाइन, मुंबई- 022- 24131212
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस-080 - 26995000
पेंटिंग और राइटिंग का सहारा
अपने मुश्किल दौर पर बात करते हुए दीप्ति ने बताया, "हर 20-25 दिन में एक दौर आता था, जब मुझे लगता था कि कुछ भी सही नहीं हो रहा. अमेरिका में परिवार को छोड़कर आना गलत फैसला था. उस समय राइटिंग और पेंटिंग ही मेरे काम आई."
"मुझे याद है मैंने घंटों-घंटों कैनवस पर पेंट किया. डायरी लिखने बैठती तो लिखते ही जाती. उस दौर ने मुझे बहुत कुछ सिखाया. जो एक एक्टर को एक स्कूल नहीं सिखा सकता."
वो कहती हैं, "असफलता बहुत कीमती होती है. क्योंकि ये असफलता ही आपके हुनर को तराशती हैं, आपको अनुभव देती हैं. आपके हिस्से में असफलता आई है इससे बड़ी सफलता कुछ नहीं है.
इस लेख की शुरुआत में हमने जिस किरदार का जिक्र किया था 'मिस चमको' अब उस पर बात करने की बारी थी. जानना था कि आख़िर वो इस किरदार से ख़ुद को क्यों नहीं बांधना चाहतीं?
'मिस चमको' से अलग भी है पहचानदीप्ति कहती हैं, "सभी लोग 'मिस चमको' का ही जिक्र करते हैं. मैं इस किरदार के लिए बहुत शुक्रगुजार भी हूं. लेकिन, मैं कहना चाहती हूं कि मेरी जिंदगी इन फिल्मों से कहीं ज्यादा है."
"मैंने अंग्रेजी के अलावा, साइकोलॉजी, एस्ट्रोनॉमी और अमेरिकन थिएटर जैसे विषयों की पढ़ाई की है. मैं हमेशा चाहती थी कि मैं सिनेमा तक सीमित ना रहूं."
वो कहती हैं, "आपकी पर्सनैलिटी में कई परतें होती हैं. आप एक चीज को पकड़कर नहीं चल सकते, ना ही चलना चाहिए. अगर आपके पास हुनर है तो दूसरी चीजें भी एक्सप्लोर करनी चाहिए."
"मेरी लिखने-पढ़ने में भी उतनी ही दिलचस्पी थी जितनी एक्टिंग में. मुझे हमेशा से अपनी इंटेलेक्चुअल ग्रोथ और अकेडेमिक अचीवमेंट्स पर काम करना एक्टिंग जितना ही पसंद रहा है."
पसंदीदा निर्देशकपसंदीदा डायरेक्टर्स के तौर पर दीप्ति सबसे पहले सई परांजपे का नाम लेती हैं. वो कहती हैं, "जिस तरह का महीन काम मुझे लगता था मैं कर पाऊंगी, वो उनकी स्क्रिप्ट में रहता था. उनके स्क्रीन प्ले में बहुत नपा तुला रिएक्शन होता था."
"उसके बाद, ऋषि दा (ऋषिकेश मुखर्जी) मेरे लिए फादर फिगर जैसे थे. जब भी मेरा मन लोगों के कहने पर डांवाडोल होता, मैं ऋषि दा के पास पहुंच जाती थी."
"ऋषि दा मुझसे कहते थे कि बेटा भागना नहीं है, वापस नहीं जाना. तुम्हारी जैसी लड़की के लिए इंडस्ट्री में जगह है. मैं बनाऊंगा तुम्हारे साथ फिल्म. तुम्हें ब्रेक मिलेगा."
पसंदीदा को-एक्टर्स कौन है? इस सवाल पर दीप्ति ऋषि कपूर, शबाना आज़मी और नसीरुद्दीन शाह का नाम लेती हैं.
वो कहती हैं, "नसीर मेरे पसंदीदा को- एक्टर हैं. काश मैंने उनके साथ और फिल्में की होतीं. संजीव कुमार और दिलीप जी से भी मैंने उनसे बहुत सीखा."
दीप्ति एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर लोगों की राय से इत्तेफाक नहीं रखतीं.
वो कहती हैं, "मैं नहीं मानती ये इंडस्ट्री बुरी है. किसी भी जगह चले जाइए, बैंक में, दर्जी की दुकान पर सभी जगह परेशानियां होंगी. आप जिस तरह से खुद को पेश करेंगी वैसा ही लोग आपके साथ बर्ताव करेंगे."
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