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डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन क़ानून में ऐसा क्या है जिस पर उठ रहे हैं सवाल

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Getty Images पत्रकारों का कहना है कि वे कई ख़बरों में पर्सनल डेटा का इस्तेमाल करते हैं (सांकेतिक तस्वीर)

साल 2023 में भारत सरकार ने डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट पारित किया. यह क़ानून नागरिकों के निजी डेटा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के मक़सद से लाया गया था.

कई मसौदों पर विचार के बाद अगस्त 2023 में यह विधेयक संसद के दोनों सदनों में पारित हुआ और इसके बाद इसे राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिली.

हालांकि, क़ानून के बनने के बाद से ही इसकी आलोचना हो रही है. आलोचकों में पत्रकार भी शामिल हैं, जिनका मानना है कि इस क़ानून से पत्रकारिता की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है.

बीते 28 जुलाई को कई पत्रकार संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (एमईआईटीवाई) के सचिव एस कृष्णन से मुलाक़ात की. इस बैठक में उन्होंने सरकार से क़ानून के कुछ प्रावधानों में संशोधन की मांग की.

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फ़िलहाल डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट लागू नहीं हुआ है. इस क़ानून में कई ऐसे प्रावधान हैं, जिन पर केंद्र सरकार को नियम बनाने होंगे.

जनवरी 2025 में सरकार ने इस क़ानून से संबंधित ड्राफ्ट रूल्स जारी किए थे, जिन पर अभी विचार किया जा रहा है.

आइए समझते हैं कि यह क़ानून क्या है और इसके लागू होने से पत्रकारिता पर क्या और किस तरह का असर पड़ सकता है.

क्या है क़ानून? image BBC

साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने निजता को एक मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था, जिसके बाद यह क़ानून लाया गया. इस क़ानून के तहत अगर कोई भी व्यक्ति या संगठन किसी के व्यक्तिगत डेटा का इस्तेमाल करता है, तो उसे कुछ शर्तों का पालन करना होगा.

मिसाल के तौर पर किसी का भी निजी डेटा लेने से पहले उस व्यक्ति से सहमति लेनी होगी, डेटा का इस्तेमाल वैध मक़सद के लिए करना होगा और साथ ही डेटा की सुरक्षा का भी ध्यान रखना होगा.

इसके मुताबिक़, कोई व्यक्ति अपना निजी डेटा देने के बाद उसे हटवाने की भी माँग कर सकता है.

इस क़ानून का उल्लंघन करने पर 250 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लग सकता है. सरकार इस जुर्माने को बढ़ाकर 500 करोड़ रुपये तक भी कर सकती है.

निजी डेटा में वह सारी जानकारी शामिल है जिससे किसी की पहचान सार्वजनिक हो सकती है. इसमें नाम, पता, फ़ोन नंबर, तस्वीर, सेहत और वित्तीय मामलों से जुड़ी जानकारी और किसी व्यक्ति की इंटरनेट ब्राउज़िंग हिस्ट्री जैसे विवरण शामिल हैं.

साथ ही, इस क़ानून में डेटा को 'प्रोसेस' करने की भी परिभाषा दी गई है. इसमें डेटा इकट्ठा करना, उसे स्टोर करना और प्रकाशित करना शामिल है.

इस क़ानून को लागू करने की ज़िम्मेदारी केंद्र सरकार की संस्था 'डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड ऑफ़ इंडिया' की होगी. यह बोर्ड जुर्माना लगाने, शिकायतों पर सुनवाई करने जैसे कई मामलों में काम करेगा.

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पत्रकार क्यों कर रहे हैं विरोध ? image Getty Images भारत में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन क़ानून का कई पत्रकार संगठन विरोध कर रहे हैं (सांकेतिक तस्वीर)

पत्रकार संगठनों का कहना है कि निजी डेटा का इस्तेमाल लगभग हर तरह की पत्रकारिता में होता है.

उदाहरण के तौर पर, अगर कोई पत्रकार किसी अफ़सर के भ्रष्टाचार पर रिपोर्ट कर रहा है, तो उसमें उस अफ़सर के निजी डेटा का ज़िक्र आ सकता है.

इसलिए पत्रकारों ने इस क़ानून के कई प्रावधानों पर आपत्ति जताई है. जैसे कि इस क़ानून के तहत सरकार कुछ परिस्थितियों में किसी व्यक्ति का डेटा साझा करने का आदेश दे सकती है.

पत्रकारों को आशंका है कि अगर सरकार इस तरह का आदेश जारी करती है, तो उनके गुप्त सूत्रों की पहचान उजागर हो सकती है. कई बार रिपोर्टिंग में ऐसे स्रोत शामिल होते हैं जिनकी गोपनीयता बनाए रखना ज़रूरी होता है.

फ़रवरी 2024 में एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव को चिट्ठी लिखकर इस क़ानून के कई प्रावधानों पर चिंता जताई थी. गिल्ड ने लिखा था कि यह क़ानून 'पत्रकारिता के अस्तित्व के लिए ख़तरा पैदा कर सकता है.'

अश्विनी वैष्णव केंद्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री हैं.

पत्रकारों का कहना था कि इस क़ानून से इंटरव्यू और दूसरी चीज़ें प्रभावित न भी हों लेकिन खोजी पत्रकारिता और संवेदनशील रिपोर्टिंग पर इसका असर पड़ सकता है.

25 जून को 22 प्रेस संगठनों और एक हज़ार से ज़्यादा पत्रकारों ने भी सरकार को ज्ञापन भेजा, जिसमें क़ानून में बदलाव की माँग की गई.

इन पत्रकारों में अख़बार, टीवी, यूट्यूब और फ्रीलांसर पत्रकार शामिल हैं.

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पत्रकारों की क्या माँग है? image Getty Images डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन क़ानून को साल 2023 में पारित किया गया था (सांकेतिक तस्वीर)

पत्रकारों की माँग है कि पत्रकारिता के कार्यों के लिए इस क़ानून से छूट दी जानी चाहिए. वर्तमान में कुछ उद्देश्यों, जैसे अपराध की जाँच के लिए डेटा प्रोटेक्शन क़ानून से छूट दी गई है.

जब इस क़ानून का पहला ड्राफ्ट साल 2018 में प्रकाशित हुआ था, तब उसमें पत्रकारिता से संबंधित कई प्रावधानों से छूट दी गई थी.

साल 2019 में जब यह विधेयक पहली बार संसद में पेश हुआ, तब भी ऐसी छूट दी गई थी. इसी तरह साल 2021 के ड्राफ्ट बिल में भी पत्रकारिता के लिए कुछ छूट थी.

हालांकि, साल 2023 में जब यह क़ानून पारित किया गया, तो पत्रकारिता से जुड़ी छूट हटा दी गई. यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसा क्यों किया गया.

पत्रकारों ने सरकार से इस पर जवाब माँगा है. इसके साथ ही पत्रकार संगठनों का कहना है कि 'पत्रकार की परिभाषा' को केवल मीडिया संस्थानों में काम करने वाले लोगों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए.

एडिटर्स गिल्ड ने अपनी चिट्ठी में यह भी उल्लेख किया है कि यूरोप और सिंगापुर जैसे देशों के डेटा प्रोटेक्शन क़ानूनों में पत्रकारिता को छूट दी गई है.

इस विषय पर 2018 की जस्टिस बी. एन. श्रीकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया था कि अगर पत्रकारों को डेटा प्रोटेक्शन क़ानून का पूरी तरह पालन करना पड़ा, तो इसका अर्थ होगा कि कोई व्यक्ति अपने ख़िलाफ़ रिपोर्ट के लिए सहमति नहीं देगा.

30 जुलाई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया की उपाध्यक्ष, पत्रकार संगीता बरुआ पिशारोती ने बताया कि उन्होंने 28 जुलाई को इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिव से मुलाक़ात की थी.

उनके अनुसार, "सरकार की ओर से कहा गया है कि इस क़ानून से पत्रकारों को कोई मुश्किल नहीं होगी. मंत्रालय के सचिव ने हमें एफ़एक्यूज़ (फ़्रीक्वेंटली आस्क्ड क्वेश्चन्स) तैयार करके देने को कहा है."

उन्होंने कहा कि पत्रकार संगठन क़ानून में संशोधन की माँग कर रहे हैं और तब तक पत्रकारों को इससे अस्थाई तौर पर छूट दी जानी चाहिए.

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सूचना का अधिकार image Getty Images डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन क़ानून को लेकर आरोप है कि यह आरटीआई के मूल मक़सद के उलट है (सांकेतिक तस्वीर)

सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई एक्ट) में प्रावधान है कि इसके तहत कोई निजी जानकारी नहीं दी जा सकती है. लेकिन अगर सार्वजनिक हित से जुड़ा मसला हो या अगर किसी व्यक्ति की निजता को ग़लत तरीके से पेश नहीं कर रहा हो तो ऐसा किया जा सकता है.

साथ ही क़ानून में यह भी कहा गया था कि अगर कोई ऐसी जानकारी है जो संसद या राज्य विधानसभा को दी जा सकती है तो आम जनता को ऐसी जानकारी दी जा सकती है.

लेकिन डेटा प्रोटेक्शन क़ानून में इस प्रावधान में संशोधन किया गया है. संशोधन के बाद यह प्रावधान बस इतना कहता है कि किसी की निजी जानकारी आरटीआई क़ानून के तहत सार्वजनिक नहीं की जा सकती.

हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि सूचना के अधिकार के तहत ली गई बहुत सारी जानकारी निजी होती है. जैसे- लोगों के नाम, उनका पता. इस लिहाज़ से, डेटा प्रोटेक्शन क़ानून से सूचना का अधिकार कमज़ोर होगा.

28 जुलाई को दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस और साल 2012 में निजता के क़ानून पर एक समिति के अध्यक्ष रहे जस्टिस अजीत प्रकाश शाह ने भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी को एक चिट्ठी लिखी.

उन्होंने कहा कि सूचना के अधिकार क़ानून में पहले से ही लोगों की निजता का ध्यान रखा गया था, इसलिए उसमें संशोधन की ज़रूरत नहीं थी.

इसी तर्क के आधार पर कहा गया कि सूचना के अधिकार क़ानून में संशोधन को वापस लिया जाना चाहिए.

इस विषय पर सूचना अधिकार एक्टिविस्ट अंजलि भारद्वाज ने बीबीसी से कहा था, "इसका यह मतलब है कि अगर किसी को जानकारी चाहिए तो उन्हें दिखाना होगा कि इस जानकारी को सार्वजनिक करना जनता के हित में है."

उनके मुताबिक़, पहले के क़ानून में किसी अफ़सर को यह दिखाना होता था कि किसी जानकारी को उजागर करना सार्वजनिक हित में नहीं है या इससे किसी व्यक्ति की निजता पर बेवजह हमला होगा, लेकिन अब इसे पलट दिया गया है.

सरकार का क्या कहना है? image Getty Images सरकार का कहना है कि यह क़ानून सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर बनाया गया है (सांकेतिक तस्वीर)

सरकार का तर्क है कि यह क़ानून सुप्रीम कोर्ट के उन निर्देशों के आधार पर तैयार किया गया है, जिनमें 'निजता' को मौलिक अधिकार घोषित करते हुए निजता की सुरक्षा सुनिश्चित करने को कहा गया था.

केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने एक इंटरव्यू में यह कहा था कि डेटा प्रोटेक्शन क़ानून से सूचना के अधिकार (आरटीआई) पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

उनके अनुसार, अगर कोई जानकारी जनता के हित में है, तो वह पहले की तरह ही साझा की जाती रहेगी.

28 जुलाई को हुई बैठक में भी इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के सचिव ने पत्रकारों को आश्वस्त किया था कि इस क़ानून से उनके कामकाज पर कोई असर नहीं पड़ेगा.

हालांकि, पत्रकार संगठनों की क़ानून में बदलाव की माँग अब भी जारी है. उनका कहना है कि केवल मौखिक आश्वासन क़ानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं होता.

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