मध्य-पूर्व पर लंबे समय से अमेरिका-ईरान युद्ध का दुःस्वपन मंडराता रहा है। टैंकर हमलों, हत्याओं, होर्मुज जलडमरूमध्य में गतिरोध या खुफिया ऑपरेशंस की शक्ल में यह बार-बार सच होता दिखा है। जून 2025 में ईरान और इजरायल के बीच युद्धविराम की असहज सहमति बनने से पहले वह दुःस्वप्न हकीकत के काफी करीब पहुंच गया था।
हां, ईरान और इजरायल के बीच यह एक असहज युद्धविराम है जिस पर वाशिंगटन के अत्यधिक दबाव में सहमति बन सकी है। ईरान के राष्ट्रपति मसूद पेजेशकियन ने ‘ऐतिहासिक जीत’ का दावा किया, जबकि इजरायल के रक्षा मंत्री कैट्ज ने कहा कि ‘इजरायल युद्ध विराम का सम्मान करेगा, लेकिन तभी तक जब तक दूसरा पक्ष इसका सम्मान करता है’।
उधर, ट्रंप को अपने देश में तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ रहा है। कांग्रेस की मंजूरी के बिना ईरान पर हवाई हमले का आदेश देने के लिए उनके खिलाफ महाभियोग चलाने का डेमोक्रेटिक पार्टी की अगुआई में चलाया गया प्रयास भले विफल हो गया, लेकिन यह राजनीतिक नजारा दिखाता है कि अमेरिका एक ऐसे युद्ध के जोखिम को लेकर कितना विभाजित है जो इस क्षेत्र में पीढ़ी के सबसे खतरनाक संघर्ष में बदल सकता है। सवाल उठता है कि वाशिंगटन अपनी बेमिसाल सैन्य ताकत के बावजूद इस टकराव को ‘तार्किक नतीजे’ यानी सत्ता परिवर्तन या ईरान की सैन्य क्षमता को ध्वस्त किए बिना आखिर पीछे क्यों हट रहा है?
इसका जवाब सत्तर सालों के उलझे हुए इतिहास और इस सबक में छिपा है कि ईरान कभी भी आसानी से जीता या काबू किया जाने वाला दुश्मन नहीं रहा और उसके खिलाफ ऐसी किसी भी कोशिश की कीमत बहुत ज्यादा आंकी जाती रही है। 1953 में सीआईए और एमआई-6 ने लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग- जो ईरानी तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे और जिनके सोवियत संघ के पाले में चले जाने की आशंका थी- की सत्ता को उखाड़ फेंकने की साजिश रची। शाह को सत्ता में वापस लाने के लिए वाशिंगटन ने ईरान के लोगों में संदेह और आक्रोश के बीज बो दिए।
यह आक्रोश 1979 के अंत में फूट पड़ा जब छात्रों ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला बोल दिया और 52 अमेरिकियों को 444 दिनों तक बंधक बनाए रखा। शाह के पतन के कारण पहले से ही कमजोर हो चुके राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने संकट के बोझ तले अपने कार्यकाल की चरमराहट झेली। एक असफल ऑपरेशन में ईरान के रेगिस्तान में अमेरिकी हेलीकॉप्टर धू-धूकर जले।
इस घटनाक्रम ने अमेरिका की विदेश नीति प्रतिष्ठान को ऐसा जख्म दिया कि उसके बाद से ही वह ईरान के खिलाफ सैन्य प्रयोग के विकल्प को अपनाने को लेकर खासा सतर्क हो गया। अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने ईरान को धमकी दी है, उसके खिलाफ प्रतिबंध लगाए हैं, अपने प्रॉक्सी के जरिये बमबारी कराई है, लेकिन खुद उसके खिलाफ सैन्य हमले से परहेज किया है। 9/11 के दौरान और उसके बाद अमेरिका के राष्ट्रपति रहे जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने ईरान को ‘बुराई की धुरी’ का हिस्सा करार दिया था। बुश प्रशासन ने अफगानिस्तान और इराक की सत्ता को बड़ी तेजी से उखाड़ फेंका और उनके खेमे के कई कट्टरपंथियों का मानना था कि अगला नंबर तेहरान का होगा। लेकिन इराक के विद्रोह ने पहले ही हजारों अमेरिकियों की जान और ऑपरेशन में अरबों डॉलर लुटा चुके बुश प्रशासन को उन्हीं सलाहकारों ने ईरान के खिलाफ युद्ध नहीं करने को लेकर आगाह किया। एक तो इराक की तुलना में ईरान तीन गुना बड़ा है, पहाड़ों से घिरा है, और वह न केवल अपने सैनिकों के जरिये मोर्चा थामेगा बल्कि लेबनान से लेकर यमन तक उसके वफादार मीलिशिया अमेरिका के लिए बड़ी मुसीबत बनकर उभरेंगे।
ओबामा के कार्यकाल में यह गंभीर वास्तविकता और भी साफ हो गई। ईरान द्वारा अपनी परमाणु-संवर्धन क्षमताओं को बढ़ाने की खुफिया रिपोर्टों के बाद भी बराक ओबामा ने बमबारी के बजाय कूटनीति का रास्ता चुना। उनके आलोचकों ने ईरान के साथ परमाणु समझौते को नासमझी भरा बताया, लेकिन ओबामा के लिए इसके अलावा सैन्य अभियान का ही विकल्प था। सैन्य अभियान से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पीछे तो धकेला जा सकता था, लेकिन शायद उसे खत्म करना संभव नहीं था और इसके लिए भी अमेरिका को ईरान के साथ सीधे युद्ध करते हुए अपने सैनिकों को ईरान में उतारना पड़ता।
डॉनल्ड ट्रंप ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान इसके उलट रुख अपनाया। उन्होंने ईरान के साथ किए गए परमाणु करार को तोड़ दिया, ‘अधिकतम दबाव’ बनाने वाले प्रतिबंधों को दोगुना कर दिया और ईरान के सबसे ताकतवर जनरल कासिम सुलेमानी की 2020 में हत्या जैसे दुस्साहसिक हमले को हरी झंडी दिखाई। ईरान की जवाबी मिसाइल बमबारी झेलने के बाद भी ट्रंप ने तब ईरान के खिलाफ बमबारी अभियान शुरू करने या जमीनी हमले से परहेज किया।
इस बार बेशक ट्रंप सीधे संघर्ष के काफी करीब पहुंच गए, लेकिन वही ‘सावधानी’ फिर भी हावी रही। अमेरिकी वायुसेना ने ईरानी परमाणु ठिकानों पर बमबारी की, खाड़ी में एक बड़े व्यापक मिसाइल युद्ध को रोकने के लिए ईरानी कमांड नोड्स और प्रॉक्सी ठिकानों पर हमला किया और इस तरह इजरायल की मदद भर की। अमेरिका ने इस बार भी बड़े जमीनी ऑपरेशन का विकल्प नहीं चुना क्योंकि इससे तेल संकट भड़क सकता था और पहले से ही नाजुक दौर से गुजर रही वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में जा सकती थी। ईरान द्वारा कतर में अमेरिकी सैन्य अड्डे पर मिसाइल हमले से पहले चेतावनी देने के लिए ट्रंप का सार्वजनिक तौर पर तेहरान को ‘धन्यवाद’ कहना दोनों पक्षों की समझ का संकेत देता है- दरअसल, कोई भी नरक का दरवाजा नहीं खोलना चाहता।
ईरान ने फिर दिखाया है कि उसका मुकाबला करना इतना मुश्किल क्यों है। भूगोल और राष्ट्रवाद तो कारक हैं ही, इसके अलावा उसके शस्त्रागार में प्रॉक्सी का अनोखा हथियार भी है। बेशक ईरान की रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स अमेरिकी पारंपरिक सैन्य क्षमता के आगे नहीं टिकती लेकिन लेबनान, यमन, इराक, सीरिया और अन्य जगहों की मिलिशिया के जरिये ईरान अमेरिका की नाक में दम जरूर कर सकता है। ईरान के साथ पूर्ण युद्ध छिड़ने से खाड़ी के राजशाही इसमें उलझ जाएंगे, होर्मुज जलडमरूमध्य बंद हो जाएगा और इससे तेल की कीमतों में आसमानी उछाल आने का जोखिम है।
फिलहाल, ईरान का परमाणु कार्यक्रम दुःस्वप्न बना हुआ है। तीन संदिग्ध परमाणु ठिकानों पर हमलों के बाद भी कोई यह मानने को तैयार नहीं कि ईरान का कार्यक्रम हमेशा के लिए तबाह हो गया है। तेहरान जमीन के और नीचे सुविधाएं विकसित कर सकता है या फिर वह परमाणु बम बनाने की कोशिश कर सकता है- यह ऐसी आशंका है जिससे वाशिंगटन खौफ खाता है।
फिलहाल, एक असहज युद्धविराम जारी है क्योंकि ईरान संकेत दे रहा है कि वह वाशिंगटन के साथ ‘मुद्दों को हल करने’ को तैयार है और इसके साथ ही वादा कर रहा है कि अगर इजरायल संयम दिखाए तो वह भी ऐसा ही करेगा। पैटर्न जाना-पहचाना है: सत्ता को उखाड़ फेंकने वाले प्रहार को पहले ही तलवारें लहराकर कुंद कर देना। ईरान के नेता इस खेल में माहिर हैंः दर्द देने और सीधे टकराने की कीमत बढ़ाने के लिहाज से उकसावा तो हो, लेकिन यह उकसावा उसके खिलाफ हमले को वाजिब ठहराने के लिए काफी न हो। अमेरिका ने काफी दर्द सहकर इसे सीखा है।
अगर अमेरिका-ईरान गतिरोध के बारे में इतिहास कुछ सिखाता है, तो वह यह है: किसी सत्ता को उखाड़ फेंकना आनन-फानन में हो सकता है, लेकिन इसके बाद हालात को स्थिर करने में पीढ़ियां बरबाद हो जाती हैं। शाह के पतन से लेकर बंधक संकट तक, बगदाद में विद्रोह से लेकर आज के युद्धविराम तक, वही पैटर्न चल रहा है। अमेरिका ईरान को दंडित कर सकता है, लेकिन उसे हराने की कीमत इतनी ज्यादा है कि उसे जीतकर भी जीत नहीं मिलेगी।
संदेह नहीं कि हाल के हवाई हमलों, मिसाइल हमलों और अचानक युद्धविराम ने उन सीमाओं को तोड़ दिया है, जो कभी अकल्पनीय था। फिर भी व्हाइट हाउस और पेंटागन में वही कड़वा सच हमला करने या युद्ध विराम की दिशा में बढ़ने का फैसला करता है कि ईरान के साथ युद्ध बेशक अमेरिका की शर्तों पर शुरू हो जाए, लेकिन उसकी शर्तों पर यह खत्म नहीं होगा। ऐसा कोई भी टकराव तेल टैंकरों के जलने, दूतावासों पर हमले, कीमतों में उछाल और अमेरिकी सैनिकों के ऐसे इलाके में जान गंवाने के साथ खत्म होगा जिसने सदियों के दौरान तमाम साम्राज्यों को घुटने पर ला दिया है।
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(अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिसर्च के प्रोफेसर हैं।)
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