जून 2025 में, उप्सला कॉन्फ्लिक्ट डेटा प्रोग्राम (यूसीडीपी) ने जानकारी दी कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जबसे इसने डेटा संग्रह शुरू किया, तब से देश-आधारित संघर्षों की संख्या आज उच्चतम स्तर पर है। 2024 में 61 सक्रिय संघर्ष दर्ज किए गए, जिनमें से 11 पूर्ण युद्धों में तब्दील हो गए। 1945 के बाद से संघर्षों का यह अभूतपूर्व दौर चिंताजनक है। यह प्रवृत्ति केवल राजनीतिक अस्थिरता या विफल कूटनीति की बानगी नहीं- यह उस वैश्विक युद्ध अर्थव्यवस्था के भी धागे खोलती है, जो ऐसी औद्योगिक और वित्तीय प्रणाली को बढ़ावा देती है, जो मृत्यु और विनाश को बेहिसाब मुनाफे में बदल देती है।
युद्ध हमेशा से कुछ लोगों के लिए मुनाफे का सौदा रहा है। हमारे दौर की खासियत यह है कि इस मुनाफे का आकार विकराल हो गया है, यह ऊंचे आदर्शों के बाने में आता है और इस तरह से कमाई करने को सामान्य मान लिया गया है, यहां तक कि इस मुनाफे का महिमामंडन किया जाता है। दुनिया की सिरमौर रक्षा कंपनियां- खासकर अमेरिकी- संघर्षों के बढ़ने के साथ रिकॉर्ड मुनाफा कमा रही हैं।
सिपरी (स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट) की 2024 की रिपोर्ट बताती है कि शीर्ष 100 हथियार और सैन्य सेवा कंपनियों ने 2023 में 632 अरब डॉलर का कारोबार किया, जो पिछले साल की तुलना में 4.2 फीसद ज्यादा है। इसका लगभग एक तिहाई हिस्सा अमेरिकी कंपनियों से आया और ‘बिग फाइव’- लॉकहीड मार्टिन, आरटीएक्स (पूर्व में रेथियॉन), नॉर्थ्रॉप ग्रुम्मन, बोइंग और जनरल डायनेमिक्स - पेंटागन के खर्च की रीढ़ बने हुए हैं। 2020 से 2024 तक, इन पांच कंपनियों को कुल मिलाकर 771 अरब डॉलर के ठेके मिले, जो अमेरिकी रक्षा विभाग के कुल ठेकों का एक तिहाई है।
वैसे, इस विभाग का नाम अब ‘अमेरिकी युद्ध विभाग’ हो गया है। इन कंपनियों के उत्पाद के तौर पर ही यूक्रेन और इसराइल, दोनों को अमेरिकी सैन्य मदद दी जा रही है। कहने का मतलब, पूर्वी यूरोप और गाजा में युद्ध न केवल भू-राजनीतिक संकट बन रहे हैं, बल्कि आसमानी मुनाफे का जरिया भी।
2024 में अमेरिका ने 95 अरब डॉलर की मदद के लिए विधेयक पास किया जिसे सहयोगियों के साथ एकजुटता के प्रतीक के रूप में पेश किया गया था। हालांकि, उस राशि का एक बड़ा हिस्सा अमेरिकी धरती से कभी बाहर गया ही नहीं। इसकी जगह यह पैसा हथियार निर्माताओं के पास भेजा गया, जिससे विदेश भेजे जाने वाली मिसाइलों, तोपों और ड्रोनों के भंडार भरे जा सकें।
नतीजतन, लॉकहीड और आरटीएक्स, दोनों के शेयरों की कीमतों में भारी उछाल आया। इस मॉडल में युद्ध निवेश का मौका बन जाता है- युद्ध जितना लंबा चले, उतना ही फायदेमंद। दुनिया भर के सभी संघर्षों में जीतते केवल हथियार निर्माता हैं। जब युद्ध एक बेहतरीन व्यवसाय बन जाता है, तो शांति आर्थिक रूप से तर्कहीन हो जाती है।
पूरे यूरोप से लेकर पश्चिम एशिया तक, यही पैटर्न है। ब्रिटिश दिग्गज कंपनी बीएई सिस्टम्स ने 2024 में रिकॉर्ड मुनाफा दर्ज किया और 2023 की तुलना में उसकी कमाई में 14 फीसद की वृद्धि रही, जिसका श्रेय यूक्रेन और गाजा युद्धों की वजह से बढ़ी मांग को जाता है। इसराइल की अपनी रक्षा कंपनियों, जिनमें एल्बिट सिस्टम्स भी शामिल है, ने क्षेत्रीय तनाव बढ़ने के साथ निर्यात में खासा इजाफा दर्ज किया है। हर तनाव का मतलब है नए खरीद ऑर्डर, जिससे रक्षा कंपनियों की चांदी होती है। इसलिए यह बात कि हथियार कंपनियां युद्ध जारी रखने का समर्थन करती हैं, कोई षड्यंत्र सिद्धांत नहीं है; यह उनके व्यवसाय की संरचना का अंतर्निहित आर्थिक पहलू है।
गौर करने वाली बात है कि जब सरकारें हथियारों पर अरबों डॉलर खर्च करती हैं, तो वे अनिवार्य रूप से स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और जलवायु के बजट को घटा देती हैं, जिससे राष्ट्रीय बजट प्राथमिकताएं प्रभावित होती हैं। रक्षा ठेकेदार लॉबिंग और चुनावी वित्तपोषण के माध्यम से इस चक्र को मजबूत करते हैं। वाशिंगटन में, पेंटागन और रक्षा कंपनियों के बोर्ड रूम उद्योग और देश के हितों को आपस में जोड़ते हैं। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ड्वाइट डी. आइजनहॉवर ने इस गठजोड़ को कभी ‘सैन्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्स’ नाम दिया था, वह आज स्थायी प्रभावशाली संरचना के रूप में विकसित हो गया है।
इस युद्ध अर्थव्यवस्था का नया क्षेत्र तकनीक, खासकर डेटा, निगरानी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) में निहित है। डेनवर स्थित पैलंटिर टेक्नोलॉजीज से ज्यादा स्पष्ट तरीके से इस बदलाव को शायद ही किसी कंपनी ने अपनाया हो।
आतंकवाद-निरोध के लिए डेटा विश्लेषण उपलब्ध कराने वाली पैलंटिर ने खुद को ‘पश्चिम के एआई शस्त्रागार’ के रूप में स्थापित कर लिया है। इसका सॉफ्टवेयर युद्धक्षेत्र की खुफिया जानकारी, रसद और लक्ष्य साधने वाली प्रणालियों को आपस में जोड़ता है जिससे हमले को और अधिक सटीक बनाना संभव हो पाता है। व्यवहार में यह हत्या को सटीक और कम जवाबदेही वाला बनाता है। गाजा में पैलंटिर ने इसराइल के लक्षित अभियानों को बेहद सफल बनाया है। इसके पूर्वानुमान मॉडल जीवन और मृत्यु के फैसलों को कोड की पंक्तियों में बदल देते हैं। कंपनी ने 2025 की दूसरी तिमाही में 1 अरब डॉलर की कमाई दर्ज की, जिसमें से लगभग आधी अमेरिकी सरकारी ठेकों से आई।
युद्ध क्षेत्रों के अलावा, पैलंटिर की तकनीकों का इस्तेमाल घरेलू पुलिसिंग और आव्रजन से जुड़े मामलों में भी किया गया है। जो प्रणाली संघर्ष क्षेत्रों में दुश्मन के लड़ाकों का नक्शा बनाती है, उसी के जरिये पश्चिम में प्रवासियों और शरणार्थियों पर नजर रखी जा रही है। इस तरह यह निगरानी व्यवस्था सैन्य अभियानों से आगे बढ़कर लोगों के जीवन तक में घुस गई है। यह दिखाता है कि कैसे युद्ध अर्थव्यवस्था रोजमर्रा के शासन-प्रशासन में घर कर गई है, जहां लोग डेटा बिंदु बनकर रह गए हैं, और समाज वास्तविक और काल्पनिक ‘सुरक्षा’ खतरों के खिलाफ तेजी से खड़े होने लगे हैं।
जब युद्ध बढ़ने पर मुनाफा बढ़ता हो, जब हवाई हमलों की खबरों से वैश्विक शेयर बाजार चढ़ते हों, जब इंसानी तकलीफ कॉरपोरेट विकास को बढ़ावा देती हो, तो ऐसी स्थिति में नैतिक सवाल से कैसे मुंह फेर सकते हैं? रक्षा उद्योग दलील देता है कि वह सिर्फ सरकारों को आपूर्ति करता है, नीतियां नहीं बनाता। लेकिन यह दलील कितनी तर्कसंगत है? युद्ध के शिकार अपनी जान देकर उन लोगों की समृद्धि की कीमत चुकाते हैं जो उनकी मौत का सौदा करते हैं।
वैश्विक हथियार अर्थव्यवस्था असमानता को भी बढ़ाती है। अमीर देश हथियारों का उत्पादन और निर्यात करते हैं; गरीब देश उन्हें भारी कीमत पर खरीदते हैं। अक्सर वे इसके लिए लोन लेते हैं जो उन्हें लंबे समय तक देनदार बना देता है। कई विकासशील देशों, खासकर भारत में, सैन्य खर्च स्वास्थ्य और शिक्षा के बजट से कहीं ज्यादा है।
सत्तावादी या प्रतिबंधित शासन व्यवस्थाओं में भी ऐसा ही पैटर्न होता है। रूस के सरकारी समूह रोस्टेक ने 2022 से मिसाइलों, गोला-बारूद और बख्तरबंद गाड़ियों के उत्पादन में भारी वृद्धि की है, जिससे उसके राजस्व में 49 फीसद की वृद्धि हुई है। चीन का रक्षा क्षेत्र पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ्रीका तथा पश्चिम एशिया के कई देशों में अपने निर्यात बढ़ा रहा है। युद्ध अर्थव्यवस्था अमेरिकी एकाधिकार नहीं, बल्कि यह सैन्यीकृत पूंजीवाद की एक विश्वव्यापी व्यवस्था है। हां, इतना जरूर है कि अभी अमेरिका इसका केन्द्र बना हुआ है।
यूसीडीपी के आंकड़े निश्चित ही सोच में डालने वाले हैं। ये याद दिलाते हैं कि दुनिया एक बार फिर युद्धकालीन व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। संघर्ष बढ़ रहे हैं, विस्थापन बढ़ रहा है और मानवीय व्यवस्थाएं कमजोर पड़ रही हैं। युद्ध अर्थव्यवस्था इतिहास की कोई दुर्घटना नहीं, बल्कि जानबूझकर बनाई गई एक व्यवस्था है जो राजनीति और पैसे से पोषित होती है। इसे तोड़ना आसान नहीं, लेकिन इसे मान लेने का सीधा-सा मतलब इस विचार को तिलांजलि देना होगा कि अब भी शांति पाई जा सकती है। ऐसी दुनिया में जहां हत्या करना फायदेमंद हो गया है, इस हमले का विरोध उसे सामान्य मानने से इनकार करने से शुरू होता है।
… अशोक स्वैन स्वीडन के उप्सला विश्वविद्यालय में पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट रिसर्च के प्रोफेसर हैं।
You may also like
मप्र को ट्रेवल मार्ट में मिले 3665 करोड़ रुपये से भी अधिक के निवेश प्रस्ताव
सचिन तेंदुलकर ने लॉन्च किया नया स्पोर्ट्स ब्रांड 'टेन एक्सयू'
पीकेएल-12 : तमिल थलाइवाज को हराकर प्लेऑफ में पहुंचने वाली दूसरी टीम बनी पुनेरी पल्टन
Kishkindhapuri: OTT पर प्रीमियर की तारीख और कहानी का रोमांच
'कान में सोना और पैर की चांदी...' गहनों के लिए खेत में दराती से बुजुर्ग की हत्या, टॉप्स बेचने निकले तो पकड़ाए