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सरकारी स्कूल और अस्पतालों की दुर्दशा: जब लोककल्याण की जगह ले लेता है मुनाफा, तो सवाल उठता है— जिम्मेदार कौन

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एक समय था जब सरकारी स्कूल और अस्पताल देश की रीढ़ माने जाते थे। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सेवाएं आमजन तक पहुंचाने का यह सबसे सशक्त माध्यम थे। लेकिन आज, वही संस्थान अपनी विश्वसनीयता, गुणवत्ता और उद्देश्य को खोते नजर आ रहे हैं। नतीजा यह है कि जनता का भरोसा सरकारी सिस्टम से हटकर प्राइवेट संस्थानों की ओर चला गया है, चाहे उसमें कितनी भी कीमत चुकानी पड़े।

स्कूल या खंडहर?
देश के ग्रामीण इलाकों में तो स्थिति और भी चिंताजनक है। हजारों सरकारी स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक हैं, न ही बुनियादी सुविधाएं। टॉयलेट, पीने का पानी, डेस्क-कुर्सियां और बिजली जैसी सुविधाओं की कमी आज भी एक सच्चाई है।

कई जगहों पर शिक्षकों की नियुक्ति वर्षों से नहीं हुई। कई राज्यों में स्कूल एक ही शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं, जो प्रधानाचार्य भी है, क्लास टीचर भी और कभी-कभी चौकीदार भी। यह शिक्षा नहीं, सिर्फ औपचारिकता है।

अस्पताल या नाम मात्र की सुविधा?
स्वास्थ्य सेवाओं का हाल भी कुछ अलग नहीं। सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की भारी कमी, खराब मशीनें, पर्याप्त दवाओं की अनुपलब्धता और मरीजों की लंबी लाइनें आम हो चुकी हैं।

गांव-कस्बों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) या तो बंद पड़े हैं या वहां कोई डॉक्टर मौजूद नहीं। कई मरीज मजबूर होकर या तो निजी अस्पतालों में जाते हैं या इलाज के अभाव में गंभीर स्थिति तक पहुंच जाते हैं।

लोककल्याण से मुनाफे तक का सफर
एक समय में जहां सरकारी संस्थाएं लोकसेवा की भावना से चलाई जाती थीं, आज वे या तो उपेक्षा का शिकार हो चुकी हैं या प्राइवेट मॉडल को बढ़ावा देने की रणनीति के तहत कमजोर की जा रही हैं।

सरकारी सिस्टम की निष्क्रियता से प्राइवेट स्कूल और हॉस्पिटल्स की बिना रोक-टोक की मुनाफाखोरी को बल मिल रहा है। अब शिक्षा और स्वास्थ्य, जिन पर हर नागरिक का संवैधानिक हक है, धीरे-धीरे एक “उपलब्ध सेवा” बनती जा रही हैं — वो भी उन लोगों के लिए, जो उसकी कीमत चुका सकें।

जिम्मेदारी किसकी?
सरकारें हर बजट में स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए योजनाएं घोषित करती हैं, लेकिन नीतियों का जमीनी कार्यान्वयन अक्सर असफल रहता है। फाइलों में चलने वाली योजनाएं, जमीनी स्तर पर पहुंचने से पहले ही थम जाती हैं।

राजनीतिक इच्छाशक्ति, प्रशासनिक जवाबदेही और नियमित ऑडिट के बिना इन संस्थानों का पुनर्जीवन मुश्किल है।

समाधान क्या है?
संसाधनों की पारदर्शी व्यवस्था और नियुक्तियों में शीघ्रता।

अकाउंटेबिलिटी सिस्टम — जैसे शिक्षकों की उपस्थिति, अस्पतालों की रिपोर्टिंग, बजट खर्च की मॉनिटरिंग।

निजीकरण के बजाय सार्वजनिक प्रणाली को सशक्त करना — ताकि हर नागरिक को समान, गुणवत्तापूर्ण सेवा मिल सके।

स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी और निगरानी तंत्र विकसित करना।

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