नई दिल्ली:  सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोई भी जांच एजेंसी किसी वकील को उसके मुवक्किलों के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए समन जारी नहीं कर सकती, जब तक कि वह प्रासंगिक कानून के तहत स्पष्ट रूप से अनुमत न हो। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा दो वरिष्ठ वकीलों को जारी समन को रद्द कर दिया और जांच एजेंसियों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए, जिनके तहत वकीलों को उनके मुवक्किलों को दी गई कानूनी सलाह के संबंध में पूछताछ के लिए तलब करने पर रोक लगाई गई है। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कई निर्देश जारी किए ताकि जांच एजेंसियां अभियुक्तों को दी गई कानूनी सलाह के संबंध में वकीलों को मनमाने ढंग से समन जारी न कर सकें।   
   
चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली बेंच ने यह फैसला एक स्वतः संज्ञान (suo motu) मामले में सुनाया। यह मामला तब शुरू हुआ जब ईडी ने वरिष्ठ वकीलों अरविंद दातार और प्रताप वेणुगोपाल को मनी लॉन्ड्रिंग केस में मामले में पूछताछ के लिए तलब किया था। अपना फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों को संरक्षण देने वाले 'नियम के अपवाद' को संतुलित करने का प्रयास किया है और कानूनी पेशे को जांच एजेंसियों के अनुचित दबाव से बचाने के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
     
कब जब्त कर सकते हैं लैपटॉप और मोबाइल?अदालत ने यह भी कहा कि वकीलों के डिजिटल उपकरण (जैसे लैपटॉप या मोबाइल) केवल क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय के समक्ष ही जब्त किए जा सकते हैं, और इन्हें केवल वकील की उपस्थिति में और संबंधित पक्षों की आपत्तियों के निपटान के बाद ही खोला जा सकता है। ईडी द्वारा पहले जारी किए गए समनों को रद्द करते हुए पीठ ने कहा कि ये समन उन आरोपित व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जिन्होंने अपने वकीलों पर विश्वास जताया था। बेंच ने कहा कि ऐसे समन उन अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकते हैं जिन्होंने अपने वकीलों पर भरोसा किया है। न्यायालय ने ऐसी कार्रवाइयों को विधिक सुरक्षा के उल्लंघन के समान बताया।
     
देश के सभी नागरिकों के संरक्षकइस मामले में बेंच ने 12 अगस्त को फैसला सुरक्षित रखा था और स्वयं को 'देश के सभी नागरिकों का संरक्षक' बताया था, जब उसने यह चिंता व्यक्त की थी कि जांच एजेंसियां आरोपितों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों से पूछताछ कर रही हैं। यह स्वतः संज्ञान की यह कार्यवाही तब शुरू हुई जब ईडी ने दातार और वेणुगोपाल को समन भेजे थे। इस कदम की कड़ी आलोचना सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने की थी, जिन्होंने इसे “कानूनी पेशे को कमजोर करने वाली चिंताजनक प्रवृत्ति” बताया। विवाद के बाद, 20 जून को ईडी ने अपने अधिकारियों को आंतरिक दिशा-निर्देश जारी किए कि वे धन शोधन मामलों में वकीलों को केवल निदेशक की पूर्व स्वीकृति प्राप्त होने और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 132 के अनुरूप होने पर ही समन भेज सकते हैं।
   
..ताकी मनमाने ढंग से समन जारी न कर सकेंसुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कई निर्देश जारी किए ताकि जांच एजेंसियां अभियुक्तों को दी गई कानूनी सलाह के संबंध में वकीलों को मनमाने ढंग से समन जारी न कर सकें। चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच में यह मुद्दा था कि जांच एजेंसियां (ईडी) अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों को मनमाने तरीके से तलब कर रही हैं।हालांकि न्यायालय ने औपचारिक 'दिशानिर्देश' (guidelines) जारी करने से परहेज़ किया और यह भी कहा कि समन जारी करने से पहले मजिस्ट्रेट की निगरानी आवश्यक नहीं है, परंतु उसने कुछ स्पष्ट दिशा-निर्देश (directions) अवश्य दिए।
   
सुप्रीम कोर्ट के क्या हैं निर्देश
> भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023) की धारा 132 के अंतर्गत यह विशेषाधिकार (privilege) मुवक्किल को प्रदान किया गया है, जिसके तहत वकील को अपने मुवक्किल द्वारा गोपनीय रूप से साझा की गई कोई भी बात प्रकट नहीं करनी चाहिए। इसलिए किसी भी आपराधिक मामले में जांच अधिकारी या थाने का प्रभारी अधिकारी वकील को अभियुक्त से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए समन जारी नहीं कर सकता — जब तक कि वह धारा 132 के अपवादों के अंतर्गत न आता हो। यदि किसी अपवाद के आधार पर समन जारी किया जाता है, तो उसमें यह स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए कि किस तथ्य के आधार पर अपवाद लागू किया जा रहा है, और यह समन केवल पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) या उससे उच्च अधिकारी की लिखित स्वीकृति के बाद ही जारी किया जा सकेगा।
   
> इस प्रकार जारी समन को वकील या मुवक्किल धारा 528 BNSS (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के तहत न्यायिक समीक्षा के लिए चुनौती दे सकते हैं।
   
> गैर-प्रकटीकरण (non-disclosure) का यह दायित्व उन वकीलों पर लागू होगा जो या तो किसी मुकदमे में संलग्न हैं या किसी गैर-मुकदमेबाज़ी (non-litigatious) अथवा पूर्व-मुकदमेबाज़ी (pre-litigation) मामले में मुवक्किल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
   
> मुवक्किल से संबंधित दस्तावेज़ों का उत्पादन (production of documents) वकील की गोपनीयता के विशेषाधिकार के दायरे में नहीं आता — चाहे वह दीवानी (civil) मामला हो या आपराधिक (criminal)।
   
> आपराधिक मामलों में यदि कोई न्यायालय या अधिकारी दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का निर्देश देता है, तो वकील को वह दस्तावेज़ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना होगा — BNSS की धारा 94 और BSA की धारा 165 के अनुसार। दीवानी मामलों में दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की प्रक्रिया BSA की धारा 165 और CPC (दीवानी प्रक्रिया संहिता) के आदेश 16 नियम 7 द्वारा नियंत्रित होगी। दस्तावेज़ प्रस्तुत किए जाने पर न्यायालय वकील और मुवक्किल की आपत्तियाँ सुनकर ही यह निर्णय करेगा कि दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जाए या नहीं, और वह साक्ष्य के रूप में ग्राह्य (admissible) है या नहीं।
   
> यदि किसी जांच अधिकारी द्वारा BNSS की धारा 94 के तहत किसी डिजिटल उपकरण (जैसे लैपटॉप, मोबाइल आदि) को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाता है, तो वकील उसे सीधे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करेगा। न्यायालय उस पक्ष (मुवक्किल) को नोटिस जारी करेगा जिसके संबंध में डिजिटल उपकरण से जानकारी प्राप्त की जानी है। अदालत वकील और मुवक्किल की आपत्तियाँ सुनेगा। यदि न्यायालय आपत्तियाँ खारिज करता है, तो उपकरण को केवल वकील और मुवक्किल की उपस्थिति में ही खोला जाएगा, और उन्हें अपने पसंद के डिजिटल विशेषज्ञ की सहायता लेने की अनुमति दी जाएगी। जांच के दौरान यह सावधानी रखी जाएगी कि वकील के अन्य मुवक्किलों की गोपनीयता पर कोई प्रभाव न पड़े, और केवल वही जानकारी प्रकट की जाए जो जांच अधिकारी द्वारा मांगी गई है और जो कानूनी रूप से स्वीकार्य है।
   
> इन-हाउस काउंसिल (In-house Counsel), जो कंपनियों या संस्थानों के भीतर कार्यरत विधिक सलाहकार हैं — को धारा 132 के तहत यह सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि वे न्यायालय में वकालत नहीं करते। हालांकि, उन्हें BSA की धारा 134 के तहत उस हद तक सुरक्षा मिलेगी जहाँ वे एक 'कानूनी सलाहकार' के रूप में गोपनीय जानकारी प्राप्त करते हैं, लेकिन नियोक्ता (employer) और इन-हाउस काउंसिल के बीच के आंतरिक संवाद पर यह विशेषाधिकार लागू नहीं होगा।
   
डिजिटल दस्तावेज मांगे जा सकते हैं- सुप्रीम कोर्टअदालत ने कहा कि वकीलों से ऐसे दस्तावेज़ या डिजिटल उपकरण मांगे जा सकते हैं जिनमें उनके मुवक्किलों से संबंधित जानकारी हो सकती है।मुवक्किल के स्वामित्व वाले, लेकिन वकील के पास रखे गए दस्तावेज़ों पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Bharatiya Sakshya Adhiniyam - BSA) की धारा 132 के तहत गोपनीयता (privilege) का संरक्षण लागू नहीं होगा। चाहे मामला दीवानी (civil) हो या आपराधिक (criminal)।
   
> सर्वोच्च न्यायालय ने डिजिटल उपकरणों की जब्ती और जांच के लिए विशेष सुरक्षा उपाय तय किए हैं।यदि किसी जांच अधिकारी द्वारा BNSS की धारा 94 के तहत किसी वकील से डिजिटल उपकरण (जैसे लैपटॉप, कंप्यूटर, मोबाइल आदि) प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाता है, तो वकील उसे केवल क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय (jurisdictional court) के समक्ष ही प्रस्तुत करेगा।
   
> उपकरण प्रस्तुत किए जाने पर न्यायालय उस मुवक्किल (client) को नोटिस जारी करेगा जिसके संबंध में उस उपकरण से जानकारी मांगी जा रही है। न्यायालय मुवक्किल और वकील दोनों की आपत्तियाँ सुनेगा।
   
> यदि न्यायालय आपत्तियों को खारिज कर देता है, तो उपकरण केवल वकील और मुवक्किल की उपस्थिति में ही खोला जाएगा। दोनों को डिजिटल तकनीकी विशेषज्ञ की सहायता लेने की अनुमति दी जाएगी।
   
> डिजिटल उपकरण की जांच के दौरान न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि वकील के अन्य मुवक्किलों से संबंधित गोपनीय जानकारी प्रभावित न हो।
   
> केवल वही जानकारी प्रकट की जाएगी जो जांच अधिकारी द्वारा मांगी गई हो और जो न्यायालय द्वारा विधिक रूप से स्वीकार्य (permissible and admissible) मानी जाए।
   
> मुवक्किल के स्वामित्व वाले दस्तावेज़, जो वकील के पास हों, उन पर धारा 132 BSA के तहत गोपनीयता का संरक्षण लागू नहीं होगा — चाहे वह दीवानी या आपराधिक मामला हो
   
> आपराधिक मामलों में, यदि किसी न्यायालय या अधिकारी द्वारा दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाता है, तो उसे केवल न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा — BNSS की धारा 94 और BSA की धारा 165 के अनुसार।
   
> दीवानी मामलों में, दस्तावेज़ प्रस्तुतिकरण BSA की धारा 165 और CPC के आदेश 16, नियम 7 के अनुसार किया जाएगा। न्यायालय आपत्तियाँ सुनने के बाद ही यह तय करेगा कि दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जाए और क्या वह साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। डिजिटल उपकरणों के प्रस्तुतिकरण का निर्देश केवल न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने तक सीमित रहेगा।।
   
बीएसए की धारा - 132 का अपवादइस धारा के अनुसार गोपनीयता का विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं होगा अगर कोई भी संवाद किसी अवैध उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया हो, या वकील ने अपने कार्यकाल के दौरान ऐसा कोई तथ्य देखा हो जिससे यह पता चले कि उसके कार्यकाल शुरू होने के बाद कोई अपराध या धोखाधड़ी (fraud) की गई है।
   
कहां से उठा था मामलायह स्वतः संज्ञान मामला उस विवाद के बाद सामने आया जब प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने दो वरिष्ठ अधिवक्ताओं अरविंद दातार और प्रताप वेणुगोपाल को मनी लॉन्ड्रिंग जांच में तलब किया। इस कार्रवाई का सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने कड़ा विरोध किया, इसे “कानूनी पेशे की स्वतंत्रता पर हमला” बताया। विवाद के बाद, ईडी ने अपने समन वापस ले लिए और एक परिपत्र (circular) जारी कर कहा कि वकीलों को समन केवल ईडी निदेशक की पूर्व अनुमति से ही जारी किए जा सकते हैं।
  
चीफ जस्टिस बीआर गवई की अगुवाई वाली बेंच ने यह फैसला एक स्वतः संज्ञान (suo motu) मामले में सुनाया। यह मामला तब शुरू हुआ जब ईडी ने वरिष्ठ वकीलों अरविंद दातार और प्रताप वेणुगोपाल को मनी लॉन्ड्रिंग केस में मामले में पूछताछ के लिए तलब किया था। अपना फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों को संरक्षण देने वाले 'नियम के अपवाद' को संतुलित करने का प्रयास किया है और कानूनी पेशे को जांच एजेंसियों के अनुचित दबाव से बचाने के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
कब जब्त कर सकते हैं लैपटॉप और मोबाइल?अदालत ने यह भी कहा कि वकीलों के डिजिटल उपकरण (जैसे लैपटॉप या मोबाइल) केवल क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय के समक्ष ही जब्त किए जा सकते हैं, और इन्हें केवल वकील की उपस्थिति में और संबंधित पक्षों की आपत्तियों के निपटान के बाद ही खोला जा सकता है। ईडी द्वारा पहले जारी किए गए समनों को रद्द करते हुए पीठ ने कहा कि ये समन उन आरोपित व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जिन्होंने अपने वकीलों पर विश्वास जताया था। बेंच ने कहा कि ऐसे समन उन अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकते हैं जिन्होंने अपने वकीलों पर भरोसा किया है। न्यायालय ने ऐसी कार्रवाइयों को विधिक सुरक्षा के उल्लंघन के समान बताया।
देश के सभी नागरिकों के संरक्षकइस मामले में बेंच ने 12 अगस्त को फैसला सुरक्षित रखा था और स्वयं को 'देश के सभी नागरिकों का संरक्षक' बताया था, जब उसने यह चिंता व्यक्त की थी कि जांच एजेंसियां आरोपितों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों से पूछताछ कर रही हैं। यह स्वतः संज्ञान की यह कार्यवाही तब शुरू हुई जब ईडी ने दातार और वेणुगोपाल को समन भेजे थे। इस कदम की कड़ी आलोचना सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने की थी, जिन्होंने इसे “कानूनी पेशे को कमजोर करने वाली चिंताजनक प्रवृत्ति” बताया। विवाद के बाद, 20 जून को ईडी ने अपने अधिकारियों को आंतरिक दिशा-निर्देश जारी किए कि वे धन शोधन मामलों में वकीलों को केवल निदेशक की पूर्व स्वीकृति प्राप्त होने और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 132 के अनुरूप होने पर ही समन भेज सकते हैं।
..ताकी मनमाने ढंग से समन जारी न कर सकेंसुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कई निर्देश जारी किए ताकि जांच एजेंसियां अभियुक्तों को दी गई कानूनी सलाह के संबंध में वकीलों को मनमाने ढंग से समन जारी न कर सकें। चीफ जस्टिस की अगुवाई वाली बेंच में यह मुद्दा था कि जांच एजेंसियां (ईडी) अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों को मनमाने तरीके से तलब कर रही हैं।हालांकि न्यायालय ने औपचारिक 'दिशानिर्देश' (guidelines) जारी करने से परहेज़ किया और यह भी कहा कि समन जारी करने से पहले मजिस्ट्रेट की निगरानी आवश्यक नहीं है, परंतु उसने कुछ स्पष्ट दिशा-निर्देश (directions) अवश्य दिए।
सुप्रीम कोर्ट के क्या हैं निर्देश
> भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023) की धारा 132 के अंतर्गत यह विशेषाधिकार (privilege) मुवक्किल को प्रदान किया गया है, जिसके तहत वकील को अपने मुवक्किल द्वारा गोपनीय रूप से साझा की गई कोई भी बात प्रकट नहीं करनी चाहिए। इसलिए किसी भी आपराधिक मामले में जांच अधिकारी या थाने का प्रभारी अधिकारी वकील को अभियुक्त से संबंधित जानकारी प्राप्त करने के लिए समन जारी नहीं कर सकता — जब तक कि वह धारा 132 के अपवादों के अंतर्गत न आता हो। यदि किसी अपवाद के आधार पर समन जारी किया जाता है, तो उसमें यह स्पष्ट रूप से बताया जाना चाहिए कि किस तथ्य के आधार पर अपवाद लागू किया जा रहा है, और यह समन केवल पुलिस अधीक्षक (Superintendent of Police) या उससे उच्च अधिकारी की लिखित स्वीकृति के बाद ही जारी किया जा सकेगा।
> इस प्रकार जारी समन को वकील या मुवक्किल धारा 528 BNSS (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के तहत न्यायिक समीक्षा के लिए चुनौती दे सकते हैं।
> गैर-प्रकटीकरण (non-disclosure) का यह दायित्व उन वकीलों पर लागू होगा जो या तो किसी मुकदमे में संलग्न हैं या किसी गैर-मुकदमेबाज़ी (non-litigatious) अथवा पूर्व-मुकदमेबाज़ी (pre-litigation) मामले में मुवक्किल का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
> मुवक्किल से संबंधित दस्तावेज़ों का उत्पादन (production of documents) वकील की गोपनीयता के विशेषाधिकार के दायरे में नहीं आता — चाहे वह दीवानी (civil) मामला हो या आपराधिक (criminal)।
> आपराधिक मामलों में यदि कोई न्यायालय या अधिकारी दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का निर्देश देता है, तो वकील को वह दस्तावेज़ न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना होगा — BNSS की धारा 94 और BSA की धारा 165 के अनुसार। दीवानी मामलों में दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की प्रक्रिया BSA की धारा 165 और CPC (दीवानी प्रक्रिया संहिता) के आदेश 16 नियम 7 द्वारा नियंत्रित होगी। दस्तावेज़ प्रस्तुत किए जाने पर न्यायालय वकील और मुवक्किल की आपत्तियाँ सुनकर ही यह निर्णय करेगा कि दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जाए या नहीं, और वह साक्ष्य के रूप में ग्राह्य (admissible) है या नहीं।
> यदि किसी जांच अधिकारी द्वारा BNSS की धारा 94 के तहत किसी डिजिटल उपकरण (जैसे लैपटॉप, मोबाइल आदि) को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाता है, तो वकील उसे सीधे न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करेगा। न्यायालय उस पक्ष (मुवक्किल) को नोटिस जारी करेगा जिसके संबंध में डिजिटल उपकरण से जानकारी प्राप्त की जानी है। अदालत वकील और मुवक्किल की आपत्तियाँ सुनेगा। यदि न्यायालय आपत्तियाँ खारिज करता है, तो उपकरण को केवल वकील और मुवक्किल की उपस्थिति में ही खोला जाएगा, और उन्हें अपने पसंद के डिजिटल विशेषज्ञ की सहायता लेने की अनुमति दी जाएगी। जांच के दौरान यह सावधानी रखी जाएगी कि वकील के अन्य मुवक्किलों की गोपनीयता पर कोई प्रभाव न पड़े, और केवल वही जानकारी प्रकट की जाए जो जांच अधिकारी द्वारा मांगी गई है और जो कानूनी रूप से स्वीकार्य है।
> इन-हाउस काउंसिल (In-house Counsel), जो कंपनियों या संस्थानों के भीतर कार्यरत विधिक सलाहकार हैं — को धारा 132 के तहत यह सुरक्षा प्राप्त नहीं होगी, क्योंकि वे न्यायालय में वकालत नहीं करते। हालांकि, उन्हें BSA की धारा 134 के तहत उस हद तक सुरक्षा मिलेगी जहाँ वे एक 'कानूनी सलाहकार' के रूप में गोपनीय जानकारी प्राप्त करते हैं, लेकिन नियोक्ता (employer) और इन-हाउस काउंसिल के बीच के आंतरिक संवाद पर यह विशेषाधिकार लागू नहीं होगा।
डिजिटल दस्तावेज मांगे जा सकते हैं- सुप्रीम कोर्टअदालत ने कहा कि वकीलों से ऐसे दस्तावेज़ या डिजिटल उपकरण मांगे जा सकते हैं जिनमें उनके मुवक्किलों से संबंधित जानकारी हो सकती है।मुवक्किल के स्वामित्व वाले, लेकिन वकील के पास रखे गए दस्तावेज़ों पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम (Bharatiya Sakshya Adhiniyam - BSA) की धारा 132 के तहत गोपनीयता (privilege) का संरक्षण लागू नहीं होगा। चाहे मामला दीवानी (civil) हो या आपराधिक (criminal)।
> सर्वोच्च न्यायालय ने डिजिटल उपकरणों की जब्ती और जांच के लिए विशेष सुरक्षा उपाय तय किए हैं।यदि किसी जांच अधिकारी द्वारा BNSS की धारा 94 के तहत किसी वकील से डिजिटल उपकरण (जैसे लैपटॉप, कंप्यूटर, मोबाइल आदि) प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाता है, तो वकील उसे केवल क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय (jurisdictional court) के समक्ष ही प्रस्तुत करेगा।
> उपकरण प्रस्तुत किए जाने पर न्यायालय उस मुवक्किल (client) को नोटिस जारी करेगा जिसके संबंध में उस उपकरण से जानकारी मांगी जा रही है। न्यायालय मुवक्किल और वकील दोनों की आपत्तियाँ सुनेगा।
> यदि न्यायालय आपत्तियों को खारिज कर देता है, तो उपकरण केवल वकील और मुवक्किल की उपस्थिति में ही खोला जाएगा। दोनों को डिजिटल तकनीकी विशेषज्ञ की सहायता लेने की अनुमति दी जाएगी।
> डिजिटल उपकरण की जांच के दौरान न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि वकील के अन्य मुवक्किलों से संबंधित गोपनीय जानकारी प्रभावित न हो।
> केवल वही जानकारी प्रकट की जाएगी जो जांच अधिकारी द्वारा मांगी गई हो और जो न्यायालय द्वारा विधिक रूप से स्वीकार्य (permissible and admissible) मानी जाए।
> मुवक्किल के स्वामित्व वाले दस्तावेज़, जो वकील के पास हों, उन पर धारा 132 BSA के तहत गोपनीयता का संरक्षण लागू नहीं होगा — चाहे वह दीवानी या आपराधिक मामला हो
> आपराधिक मामलों में, यदि किसी न्यायालय या अधिकारी द्वारा दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाता है, तो उसे केवल न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा — BNSS की धारा 94 और BSA की धारा 165 के अनुसार।
> दीवानी मामलों में, दस्तावेज़ प्रस्तुतिकरण BSA की धारा 165 और CPC के आदेश 16, नियम 7 के अनुसार किया जाएगा। न्यायालय आपत्तियाँ सुनने के बाद ही यह तय करेगा कि दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जाए और क्या वह साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है। डिजिटल उपकरणों के प्रस्तुतिकरण का निर्देश केवल न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने तक सीमित रहेगा।।
बीएसए की धारा - 132 का अपवादइस धारा के अनुसार गोपनीयता का विशेषाधिकार उपलब्ध नहीं होगा अगर कोई भी संवाद किसी अवैध उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया गया हो, या वकील ने अपने कार्यकाल के दौरान ऐसा कोई तथ्य देखा हो जिससे यह पता चले कि उसके कार्यकाल शुरू होने के बाद कोई अपराध या धोखाधड़ी (fraud) की गई है।
कहां से उठा था मामलायह स्वतः संज्ञान मामला उस विवाद के बाद सामने आया जब प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने दो वरिष्ठ अधिवक्ताओं अरविंद दातार और प्रताप वेणुगोपाल को मनी लॉन्ड्रिंग जांच में तलब किया। इस कार्रवाई का सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) और सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन (SCAORA) ने कड़ा विरोध किया, इसे “कानूनी पेशे की स्वतंत्रता पर हमला” बताया। विवाद के बाद, ईडी ने अपने समन वापस ले लिए और एक परिपत्र (circular) जारी कर कहा कि वकीलों को समन केवल ईडी निदेशक की पूर्व अनुमति से ही जारी किए जा सकते हैं।
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