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डिजिटल डेटा की मांग सही है SIR... चुनाव आयोग के वोटर लिस्ट अपडेट अभियान पर एक्सपर्ट योगेंद्र यादव का इंटरव्यू

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बिहार में चुनाव आयोग के स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन यानी SIR पर चुनावी विश्लेषक योगेंद्र यादव ने सुप्रीम कोर्ट में भी अपनी बात रखी। योगेंद्र यादव लगातार SIR और चुनाव आयोग पर सवाल उठा रहे हैं। इस पूरे मसले पर उनसे बात की नाइश हसन ने। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश :



SIR को आपने अवैध बताया था। क्या आप इसकी कानूनी वैधता पर सवाल उठाने के पीछे के तर्क को थोड़ा समझा सकते हैं?

भारत का संविधान हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि एक बार जब वह नागरिक मान लिया गया, उसके बाद उसकी नागरिकता बरकरार रहेगी, जब तक कि वह खुद त्याग न दे या जब तक कोई प्रमाण न मिल जाए कि उसकी नागरिकता अवैध थी। संविधान का आर्टिकल 10 इसका अधिकार देता है। लेकिन SIR ने तो इसे सिर के बल खड़ा कर दिया है। जिस व्यक्ति का नाम पिछले 20 साल से वोटर लिस्ट में था, इसका मतलब है कि उसे भारत का नागरिक माना जा रहा था। आज आप उससे कह रहे हैं कि तुम सबूत लाओ। ये कैसे हो सकता है? ये हमारे लोकतंत्र के लिए जो वयस्क सार्वभौमिक मताधिकार है, उसके बुनियादी सिद्धांतों के खिलाफ है।






क्या आपको लगता है कि SIR मतदाता सूची को सटीक बनाने के बजाय लोगों को वोट देने से वंचित करने का प्रयास है?

कुछ बातों को दर्ज करना जरूरी है। पहला, यह आदेश सिर्फ बिहार ही नहीं, पूरे देश में लागू होगा। दूसरा, यह पुरानी वोटर लिस्ट में संशोधन की प्रक्रिया नहीं है, नए सिरे से कोरे कागज पर वोटर लिस्ट लिखने की प्रक्रिया है। तीसरा, इसमें देश के इतिहास में पहली बार वोटर लिस्ट में होने की जिम्मेदारी एक साधारण नागरिक पर डाली जा रही है। यह अब तक चुनाव आयोग की जिम्मेदारी थी कि वह घर-घर जाकर लोगों का नाम वोटर लिस्ट में दर्ज करे। पहली बार वोटर से कहा गया है कि फलां तारीख तक फॉर्म भरो नहीं तो तुम्हारा नाम वोटर लिस्ट में नहीं रहेगा। चौथी बात, पहली बार प्रत्येक वोटर से कहा जा रहा है कि वह अपनी नागरिकता के सबूत जमा करवाए। पहले सबूत तब दिखाने होते थे जब शक की कोई गुंजाइश हो। इन चारों लिहाज से मैंने कहा कि यह इंटेंसिव रिवीजन नहीं इंटेंसिव डिलीशन है। इसका सीधा सा प्रमाण है कि एक महीने की प्रक्रिया में चुनाव आयोग को बिहार में 65 लाख नाम मिल गए जो वोटर लिस्ट से कटने चाहिए थे। लेकिन एक भी नाम ऐसा नहीं मिला जो वोटर लिस्ट में जुड़ना चाहिए था।



क्या आपको लगता है कि यह संख्या 65 लाख से ज्यादा बढ़ सकती है?

ऐसा होना लाजिमी है क्योंकि SIR के आदेश में लिखा हुआ है। अभी तक तो हमने केवल पहला चरण देखा है, जिसमें जिन लोगों का फॉर्म नहीं मिला, उनका नाम वोटर लिस्ट से काट दिया था। अब दूसरा चरण शुरू होगा। इसमें जिन लोगों का नाम आज ड्राफ्ट लिस्ट में है उनके सिर पर तीन तलवार और लटक रही है। पहली, इन 7,24,00,000 लोगों में कम से कम 10%, या हो सकता है उससे भी ज्यादा वो नाम हैं जिनके आगे BLO ने लिख दिया है नॉट रेकमेंडेड। यानी BLO ने उनका नाम अपलोड तो कर दिया है लेकिन उनका नाम अंतिम सूची में न रहे इसकी सिफारिश की। उनकी विशेष छानबीन होगी और जाहिर है उसमें से कई नाम कटेंगे। दूसरी, जिनका रेकमेंडेड भी है, उनमें से अधिकांश ने अभी तक कोई दस्तावेज नहीं दिए हैं। अगर चुनाव आयोग की 11 दस्तावेजों की सूची के हिसाब से जाएंगे तो उनमें से आधे लोगों के पास कोई दस्तावेज हैं ही नहीं। अब उनमें से वो लोग बच जाएंगे जिनका नाम 2003 की सूची में था। लेकिन जो 40 साल से कम के हैं, जिनका नाम तब हो ही नहीं सकता था, जो गरीब-मजदूर हैं, अनपढ़ हैं, जिनके पास कोई कागजात नहीं हैं, उनका नाम कटने की सूची में आएगा ही। तीसरी, अगर ड्राफ्ट लिस्ट पर आए किसी भी नाम पर कोई ऐतराज होता है, तो वह भी कटने की श्रेणी में आ सकता है। जाहिर है, ये लिस्ट 65 लाख से ऊपर जानी ही जानी है।



राहुल गांधी ने डिजिटल डेटा की मांग की है, आप क्या कहेंगे इस बारे में?

आज की दुनिया में किसी भी सूचना को सार्वजनिक करने का मतलब है कि आपने इंटरनेट पर डाल दिया। इंटरनेट पर डालने का मतलब यह नहीं होना चाहिए कि आपने इमेज फाइल लगा दी, जिसको कोई सर्च ना कर सके। आप एक ऐसे फॉर्मेट में सारा डेटा डालें, जिसे सर्च किया जा सके। पर इलेक्शन कमीशन की जिद है कि कुछ भी करेंगे, सर्च लायक नहीं बनाएंगे। पिछले दो-तीन साल से चुनाव आयोग की एक मन:स्थिति यह है कि जितनी कम सूचना दी जाए, उतना अच्छा। परसों ही सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग ने 45 मिनट तक जिरह की। उसने कहा कि क्यों उसे इन 65 लाख लोगों के नाम छुपाने की जरूरत है और हर तरह के पैंतरे का इस्तेमाल किया कि किसी तरह उसे कारण न बताने पड़ें। यह तो एक संवैधानिक संस्था के तौर-तरीके नहीं हो सकते। इसलिए राहुल गांधी की मांग बिल्कुल सही है।



सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश पर क्या कहेंगे?

सुप्रीम कोर्ट का पहला अंतरिम आदेश उम्मीद जगाता है। आदेश सिर्फ उन 65 लाख लोगों के बारे में है जिन्हें सूची से बाहर कर दिया गया। लेकिन आदेश के जो मूल सिद्धांत हैं वो उम्मीद जगाते हैं कि पूरी SIR प्रक्रिया की परीक्षा कुछ सिद्धांतों के आधार पर होगी। पहला, पारदर्शिता का सिद्धांत। दूसरा, एक समावेशी प्रक्रिया यानी आधार, जो सबसे ज्यादा लोगों के पास है, उसको शामिल करना पड़ेगा। तीसरा, सुप्रीम कोर्ट SIR को लागू करने की प्रक्रिया पर अपनी नजर रखेगा। ये सब अच्छे संकेत हैं।

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