जबलपुर: एमपी हाईकोर्ट के जस्टिस अतुल श्रीधरन और जस्टिस डी के पालीवाल की युगलपीठ ने तल्ख टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि प्रदेश के न्यायिक ढांचे में उच्च न्यायालय खुद को स्वर्ण और जिला न्यायपालिका को शूद्र समझता है। दोनों के बीच रिश्ता सामंती व्यवस्था जैसा है। दबंग उच्च न्यायालय मामूली गलतियों के लिए जिला न्यायपालिका को फटकार लगाने के लिए हमेशा तैयार रहता है। यह सुनिश्चित करता है कि जिला न्यायपालिका को सजा के निरंतर में भय में रखा जाए।
हाईकोर्ट ने क्यों कहा ऐसा
युगलपीठ ने उक्त तल्ख टिप्पणी सेवा समाप्त किए जाने के आदेश को चुनौती देते हुए पूर्व जिला न्यायाधीश की तरफ से दायर याचिका की सुनवाई करते हुए कही। भोपाल के पूर्व एसटी-एससी कोर्ट के न्यायाधीश जगत मोहन चतुर्वेदी की तरफ से दायर याचिका में कहा गया था कि उसका चयन 30 अक्टूबर 1987 को सिविल न्यायाधीश वर्ग एक के पद पर हुआ था। साल वर्ष 1990 में उक्त पद पर उनकी पुष्टि की गई थी। इसके बाद मई 1994 को सिविल न्यायाधीश वर्ग 2 और सितम्बर 1998 में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पदोन्नत किया गया था। इसके बाद साल 2000 में उच्च न्यायिक सेवा (प्रवेश ग्रेड) के पद पर पदोन्नत किया गया। अगस्त 2008 को चयन ग्रेड दिया गया। उनका सेवा रिकॉर्ड बेदाग था और पूरे करियर में उन्हें एक भी सजा नहीं दी गई। आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन या अन्यथा के संबंध में उसे कभी कोई नोटिस जारी किया गया।
व्यापमं को आरोपियों को दी जमानत
उन्होंने व्यापमं घोटाले वाले में कुछ अभियुक्त छात्र को जमानत का लाभ प्रदान कर दिया था। प्रकरण में दर्ज धारा 420 में अधिकतम सात साल की सजा का प्रावधान था। अन्य धाराओं में तीन साल से कम की सजा का प्रावधान था। ग्वालियर में दर्ज प्रकरणों में उन्होंने जमानत आवेदन को खारिज कर दिया था।
वहीं, उच्च न्यायालय की फुल कोर्ट मीटिंग के निर्णय अनुसार प्रदेश के विधि विभाग ने 19 अक्टूबर 2015 को उन्हें सेवा से पृथक करने के आदेश पारित कर दिए। निर्णय के खिलाफ दायर अपील को अगस्त 2016 में निरस्त कर दिया गया था। जिसके कारण उक्त याचिका दायर की गयी।
बेदाग करियर बावजूद दो साल पहले रिटायरमेंट
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि 28 वर्षों के बेदाग करियर के बावजूद सेवानिवृत्ति से दो वर्ष पहले याचिकाकर्ता की सेवा समाप्त कर दी गई। कैरियर के दौरान याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई शिकायत नहीं थी। वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में कोई ऐसी प्रविष्टि थी, जिससे न्यायाधीश के रूप में उनका आचरण संदिग्ध हो। बेदाग प्रतिष्ठा के कारण ही विशेष न्यायाधीश, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के न्यायाधीश होने के बावजूद भी जमानत आवेदन को उसके समक्ष सूचीबद्ध किए गए।
एक गवाह के आधार पर लिए निर्णय
वहीं, युगलपीठ ने जांच अधिकारी की भूमिका पर तल्ख टिप्पणी की है। युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि याचिकाकर्ता द्वारा पारित आदेशों की इस प्रकार गहनता से जांच की गई है, मानो जांच अधिकारी अपीलीय न्यायालय के रूप में बैठा हो। राज्य ने जमानत रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय में कभी भी किसी आदेश को चुनौती नहीं दी और याचिकाकर्ता के समक्ष जमानत रद्द करने आवेदन भी पेश नहीं किया था। जांच में गवाह के रूप में पुलिस विवेचना अधिकारी के कथन दर्ज किए। उसके द्वारा भी कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया था।
वहीं,सर्वोच्च न्यायालय अपने आदेश पर स्पष्ट चेतावनी दी है कि न्यायाधीशों के खिलाफ बाहरी कारणों से गलत आदेश पारित करने के प्रमाण नहीं होने पर उनके अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
बीमारी का प्रभावी ढंग से इलाज नहीं
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि वर्तमान मामला ऐसी बीमारी को उजागर करता है, जिसका समाधान राज्य में विद्यमान सामाजिक संरचना के कारण प्रभावी ढंग से नहीं किया जा सकता। राज्य में अभी भी विद्यमान सामंती मानसिकता न्यायपालिका में भी प्रकट होती है। ऐसे ही मामलों के कारण उच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में जमानत आवेदन और आपराधिक अपीलें लंबित रहती हैं। बार के अनुभव से इस न्यायालय को यह निष्कर्ष निकालने का विवेक मिलता है कि उच्च न्यायालय के निरंतर भय के अधीन जिला न्यायपालिका कार्य करती है।
याचिकाकर्ता को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के ऐसे कृत्यों से जिला न्यायपालिका में संदेश जाता है कि बड़े मामलों में दोषमुक्त या जमानत के पारित आदेश न्यायाधीशों के विरुद्ध प्रतिकूल कार्रवाई का कारण बन सकती है।
रीढ़हीन प्रजाति बन जाते है जिला न्यायाधीश
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का अभिवादन करते समय जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों की शारीरिक भाषा रीढ़हीन स्तनधारियों प्रजाति जैसी होती है। उनके द्वारा रेलवे प्लेटफॉर्म पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों (जैसा कि उनकी इच्छा हो) से व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके लिए जलपान की सेवा करने के उदाहरण आम हैं। उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्ति पर आए जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कभी भी बैठने की पेशकश नहीं करते हैं। जब कभी ऐसा होता भी है, वह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने बैठने में हिचकिचाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों की मानसिकता का अधीनता और दासता पूर्ण और अपरिवर्तनीय है।
जानबूझकर हीन भावना पैदा की जाती
राज्य में जिला न्यायपालिका और उच्च न्यायालय के बीच संबंध एक-दूसरे के प्रति पारस्परिक सम्मान पर आधारित नहीं है, बल्कि ऐसा है जहां एक द्वारा दूसरे के अवचेतन में जानबूझकर भय और हीनता की भावना पैदा की जाती है।
जिला न्यायपालिका का दयनीय स्वरूप
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि जिला न्यायपालिका का दयनीय स्वरूप न्यायाधीशों की निम्न दयनीयता में परिलक्षित होता है। जो जिला न्यायपालिका के निष्क्रिय अधीनता को बढ़ाता है, जिससे वह मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हो जाती है। जो उनके न्यायिक कार्यों में परिलक्षित होता है, सबसे योग्य मामलों में भी ज़मानत नहीं दी जाती है। अभियोजन पक्ष को संदेह का लाभ देकर सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि दर्ज की जाती है।
वहीं, आरोप ऐसे तय किए जाते हैं मानो दोषमुक्त करने की शक्ति नहीं है। यह सब नौकरी बचाने के नाम पर होता है, जिसके लिए इस मामले में याचिकाकर्ता को अलग तरह से सोचने और काम करने के लिए कष्ट उठाना पड़ा।
कानून के शासन की सीमा जिला न्यायपालिका की स्वतंत्रता
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि किसी भी राज्य में कानून के शासन की सीमा उसकी जिला न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निडरता से परिलक्षित होती है, जो न्याय प्रशासन प्रणाली का पहला स्तर है। जिला न्यायपालिका का डर समझ में आता है। उनके परिवार हैं, बच्चे स्कूल जाते हैं, माता-पिता इलाज करा रहे हैं, घर बनवाना है, बचत जमा करनी है। उच्च न्यायालय एक न्यायिक आदेश के कारण उसकी सेवा अचानक समाप्त कर देता है, तो वह और उसका पूरा परिवार बिना पेंशन के सड़कों पर आ जाता है।
जो हम बोएंगे, वही काटेंगे
इसके साथ ही कहा कि एक ऐसे समाज का सामना करने का कलंक झेलता है जो उसकी अखंडता पर संदेह करता है। उच्च न्यायालय की सामंती मानसिकता, जो जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों के साथ अपने संबंधों को नियंत्रित करती है, एक लाइलाज बीमारी है। उच्च न्यायालय को आत्मचिंतन करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि बेलगाम सोशल मीडिया और अनियंत्रित जनमत अभिव्यक्ति के युग में जो हम बोएंगे, वही काटेंगे।
सात फीसदी ब्याज के साथ वेतन देने के आदेश
याचिकाकर्ता सेवा से सेवानिवृत्त हो चुका है। उनके साथ हुए घोर अन्याय के कारण न्यायालय उनके पेंशन लाभों को बहाल करने के अलावा सेवा समाप्ति की तिथि से लेकर सेवानिवृत्त होने की तिथि तक का 7 प्रतिशत ब्याज सहित वेतन प्रदान करने का आदेश जारी करती है। वेबसाइट पर इस आदेश के अपलोड होने की तिथि से 90 दिनों के भीतर आदेश के पालन किया जाए। आदेश के पालन नहीं होने याचिकाकर्ता अवमानना कार्यवाही के लिए स्वतंत्र है। याचिकाकर्ता द्वारा झेले गए अन्याय की प्रकृति, परिवार को हुई कठिनाइयों, समाज में उसे जो अपमान सहना पड़ा, उसे देखते हुए न्यायालय पांच लाख का जुर्माना लगाते हुए याचिकाकर्ता को प्रदान करने के आदेश जारी करती है।
हाईकोर्ट ने क्यों कहा ऐसा
युगलपीठ ने उक्त तल्ख टिप्पणी सेवा समाप्त किए जाने के आदेश को चुनौती देते हुए पूर्व जिला न्यायाधीश की तरफ से दायर याचिका की सुनवाई करते हुए कही। भोपाल के पूर्व एसटी-एससी कोर्ट के न्यायाधीश जगत मोहन चतुर्वेदी की तरफ से दायर याचिका में कहा गया था कि उसका चयन 30 अक्टूबर 1987 को सिविल न्यायाधीश वर्ग एक के पद पर हुआ था। साल वर्ष 1990 में उक्त पद पर उनकी पुष्टि की गई थी। इसके बाद मई 1994 को सिविल न्यायाधीश वर्ग 2 और सितम्बर 1998 में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पद पर पदोन्नत किया गया था। इसके बाद साल 2000 में उच्च न्यायिक सेवा (प्रवेश ग्रेड) के पद पर पदोन्नत किया गया। अगस्त 2008 को चयन ग्रेड दिया गया। उनका सेवा रिकॉर्ड बेदाग था और पूरे करियर में उन्हें एक भी सजा नहीं दी गई। आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन या अन्यथा के संबंध में उसे कभी कोई नोटिस जारी किया गया।
व्यापमं को आरोपियों को दी जमानत
उन्होंने व्यापमं घोटाले वाले में कुछ अभियुक्त छात्र को जमानत का लाभ प्रदान कर दिया था। प्रकरण में दर्ज धारा 420 में अधिकतम सात साल की सजा का प्रावधान था। अन्य धाराओं में तीन साल से कम की सजा का प्रावधान था। ग्वालियर में दर्ज प्रकरणों में उन्होंने जमानत आवेदन को खारिज कर दिया था।
वहीं, उच्च न्यायालय की फुल कोर्ट मीटिंग के निर्णय अनुसार प्रदेश के विधि विभाग ने 19 अक्टूबर 2015 को उन्हें सेवा से पृथक करने के आदेश पारित कर दिए। निर्णय के खिलाफ दायर अपील को अगस्त 2016 में निरस्त कर दिया गया था। जिसके कारण उक्त याचिका दायर की गयी।
बेदाग करियर बावजूद दो साल पहले रिटायरमेंट
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि 28 वर्षों के बेदाग करियर के बावजूद सेवानिवृत्ति से दो वर्ष पहले याचिकाकर्ता की सेवा समाप्त कर दी गई। कैरियर के दौरान याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई शिकायत नहीं थी। वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में कोई ऐसी प्रविष्टि थी, जिससे न्यायाधीश के रूप में उनका आचरण संदिग्ध हो। बेदाग प्रतिष्ठा के कारण ही विशेष न्यायाधीश, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के न्यायाधीश होने के बावजूद भी जमानत आवेदन को उसके समक्ष सूचीबद्ध किए गए।
एक गवाह के आधार पर लिए निर्णय
वहीं, युगलपीठ ने जांच अधिकारी की भूमिका पर तल्ख टिप्पणी की है। युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि याचिकाकर्ता द्वारा पारित आदेशों की इस प्रकार गहनता से जांच की गई है, मानो जांच अधिकारी अपीलीय न्यायालय के रूप में बैठा हो। राज्य ने जमानत रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय में कभी भी किसी आदेश को चुनौती नहीं दी और याचिकाकर्ता के समक्ष जमानत रद्द करने आवेदन भी पेश नहीं किया था। जांच में गवाह के रूप में पुलिस विवेचना अधिकारी के कथन दर्ज किए। उसके द्वारा भी कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया था।
वहीं,सर्वोच्च न्यायालय अपने आदेश पर स्पष्ट चेतावनी दी है कि न्यायाधीशों के खिलाफ बाहरी कारणों से गलत आदेश पारित करने के प्रमाण नहीं होने पर उनके अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
बीमारी का प्रभावी ढंग से इलाज नहीं
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि वर्तमान मामला ऐसी बीमारी को उजागर करता है, जिसका समाधान राज्य में विद्यमान सामाजिक संरचना के कारण प्रभावी ढंग से नहीं किया जा सकता। राज्य में अभी भी विद्यमान सामंती मानसिकता न्यायपालिका में भी प्रकट होती है। ऐसे ही मामलों के कारण उच्च न्यायालय में बड़ी संख्या में जमानत आवेदन और आपराधिक अपीलें लंबित रहती हैं। बार के अनुभव से इस न्यायालय को यह निष्कर्ष निकालने का विवेक मिलता है कि उच्च न्यायालय के निरंतर भय के अधीन जिला न्यायपालिका कार्य करती है।
याचिकाकर्ता को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। उच्च न्यायालय के ऐसे कृत्यों से जिला न्यायपालिका में संदेश जाता है कि बड़े मामलों में दोषमुक्त या जमानत के पारित आदेश न्यायाधीशों के विरुद्ध प्रतिकूल कार्रवाई का कारण बन सकती है।
रीढ़हीन प्रजाति बन जाते है जिला न्यायाधीश
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का अभिवादन करते समय जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों की शारीरिक भाषा रीढ़हीन स्तनधारियों प्रजाति जैसी होती है। उनके द्वारा रेलवे प्लेटफॉर्म पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों (जैसा कि उनकी इच्छा हो) से व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके लिए जलपान की सेवा करने के उदाहरण आम हैं। उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्ति पर आए जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कभी भी बैठने की पेशकश नहीं करते हैं। जब कभी ऐसा होता भी है, वह उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने बैठने में हिचकिचाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों की मानसिकता का अधीनता और दासता पूर्ण और अपरिवर्तनीय है।
जानबूझकर हीन भावना पैदा की जाती
राज्य में जिला न्यायपालिका और उच्च न्यायालय के बीच संबंध एक-दूसरे के प्रति पारस्परिक सम्मान पर आधारित नहीं है, बल्कि ऐसा है जहां एक द्वारा दूसरे के अवचेतन में जानबूझकर भय और हीनता की भावना पैदा की जाती है।
जिला न्यायपालिका का दयनीय स्वरूप
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि जिला न्यायपालिका का दयनीय स्वरूप न्यायाधीशों की निम्न दयनीयता में परिलक्षित होता है। जो जिला न्यायपालिका के निष्क्रिय अधीनता को बढ़ाता है, जिससे वह मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर हो जाती है। जो उनके न्यायिक कार्यों में परिलक्षित होता है, सबसे योग्य मामलों में भी ज़मानत नहीं दी जाती है। अभियोजन पक्ष को संदेह का लाभ देकर सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि दर्ज की जाती है।
वहीं, आरोप ऐसे तय किए जाते हैं मानो दोषमुक्त करने की शक्ति नहीं है। यह सब नौकरी बचाने के नाम पर होता है, जिसके लिए इस मामले में याचिकाकर्ता को अलग तरह से सोचने और काम करने के लिए कष्ट उठाना पड़ा।
कानून के शासन की सीमा जिला न्यायपालिका की स्वतंत्रता
युगलपीठ ने अपने आदेश में कहा है कि किसी भी राज्य में कानून के शासन की सीमा उसकी जिला न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निडरता से परिलक्षित होती है, जो न्याय प्रशासन प्रणाली का पहला स्तर है। जिला न्यायपालिका का डर समझ में आता है। उनके परिवार हैं, बच्चे स्कूल जाते हैं, माता-पिता इलाज करा रहे हैं, घर बनवाना है, बचत जमा करनी है। उच्च न्यायालय एक न्यायिक आदेश के कारण उसकी सेवा अचानक समाप्त कर देता है, तो वह और उसका पूरा परिवार बिना पेंशन के सड़कों पर आ जाता है।
जो हम बोएंगे, वही काटेंगे
इसके साथ ही कहा कि एक ऐसे समाज का सामना करने का कलंक झेलता है जो उसकी अखंडता पर संदेह करता है। उच्च न्यायालय की सामंती मानसिकता, जो जिला न्यायपालिका के न्यायाधीशों के साथ अपने संबंधों को नियंत्रित करती है, एक लाइलाज बीमारी है। उच्च न्यायालय को आत्मचिंतन करना चाहिए और यह समझना चाहिए कि बेलगाम सोशल मीडिया और अनियंत्रित जनमत अभिव्यक्ति के युग में जो हम बोएंगे, वही काटेंगे।
सात फीसदी ब्याज के साथ वेतन देने के आदेश
याचिकाकर्ता सेवा से सेवानिवृत्त हो चुका है। उनके साथ हुए घोर अन्याय के कारण न्यायालय उनके पेंशन लाभों को बहाल करने के अलावा सेवा समाप्ति की तिथि से लेकर सेवानिवृत्त होने की तिथि तक का 7 प्रतिशत ब्याज सहित वेतन प्रदान करने का आदेश जारी करती है। वेबसाइट पर इस आदेश के अपलोड होने की तिथि से 90 दिनों के भीतर आदेश के पालन किया जाए। आदेश के पालन नहीं होने याचिकाकर्ता अवमानना कार्यवाही के लिए स्वतंत्र है। याचिकाकर्ता द्वारा झेले गए अन्याय की प्रकृति, परिवार को हुई कठिनाइयों, समाज में उसे जो अपमान सहना पड़ा, उसे देखते हुए न्यायालय पांच लाख का जुर्माना लगाते हुए याचिकाकर्ता को प्रदान करने के आदेश जारी करती है।
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