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History of caste census in India : राजनीति और भविष्य: क्या मायने रखती है जातिगत गणना?

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History of caste census in India : राजनीति और भविष्य: क्या मायने रखती है जातिगत गणना?

News India live, Digital Desk: भारत में जाति गणना का मुद्दा आजादी से लेकर अब तक राजनीतिक और सामाजिक बहसों के केंद्र में रहा है। आइए समझते हैं कि जाति गणना क्या है, इसका ऐतिहासिक संदर्भ क्या रहा है और इसका भविष्य क्या हो सकता है।

जाति गणना क्या होती है?

जाति गणना का अर्थ है राष्ट्रीय जनगणना के दौरान अलग-अलग जातियों के आंकड़ों का व्यवस्थित संग्रह। भारत जैसे देश में, जहां सामाजिक और आर्थिक स्थिति जाति से जुड़ी होती है, यह आंकड़े नीतिगत फैसलों, आरक्षण और सामाजिक न्याय के कार्यक्रमों को तैयार करने में मददगार हो सकते हैं।

जाति जनगणना का ऐतिहासिक संदर्भ

ब्रिटिश भारत (1881-1931): ब्रिटिश शासन काल में 1881 से लेकर 1931 तक हर दशक में जाति गणना की गई। इसका उद्देश्य भारत की जटिल सामाजिक संरचना को समझना और औपनिवेशिक शासन को मजबूत करना था।

आजादी के बाद (1951): 1951 में स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति को छोड़ अन्य जातियों की गणना न कराने का निर्णय लिया। इसका कारण राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने की इच्छा थी।

1961 का निर्देश: केंद्र सरकार ने राज्यों को अपनी इच्छा से अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की सूचियां तैयार करने के लिए सर्वेक्षण करने की अनुमति दी। हालांकि, यह राष्ट्रीय स्तर पर नहीं किया गया।

जाति गणना कैसे राजनीतिक मुद्दा बनी?

मंडल आयोग (1980): मंडल आयोग द्वारा सरकारी नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% आरक्षण की सिफारिश के बाद जातिगत आंकड़ों की कमी महसूस की गई। इससे जाति जनगणना की मांग तेज हुई।

सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) 2011: 2011 में यूपीए सरकार ने व्यापक जाति गणना कराई, लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए, जिससे विवाद पैदा हुआ।

राज्यों की पहल: राष्ट्रीय स्तर पर जाति गणना न होने के कारण बिहार, कर्नाटक और तेलंगाना जैसे राज्यों ने खुद जाति सर्वेक्षण कराए। बिहार के 2023 के सर्वेक्षण में पता चला कि ओबीसी और ईबीसी की आबादी 63% से ज्यादा है।

जाति जनगणना क्यों महत्वपूर्ण है?

जाति जनगणना केवल एक सांख्यिकीय अभ्यास नहीं है, बल्कि सामाजिक न्याय और राजनीतिक रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, आरक्षण और सामाजिक सुरक्षा जैसी सेवाओं तक समान पहुंच सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा के अनुसार, जाति गणना से संरचनात्मक असमानताओं को उजागर कर उचित नीतियां बनाई जा सकती हैं।

हालांकि कुछ आलोचकों का मानना है कि इससे जातिगत विभाजन बढ़ सकता है।

आगे का रास्ता

सरकार ने जातिगत गणना को अगली जनगणना में शामिल करने की घोषणा की है। इससे राजनीतिक परिदृश्य, प्रशासन और सामाजिक नीतियों में बड़ा बदलाव आने की संभावना है। हालांकि यह प्रक्रिया कब और कैसे शुरू होगी, इसका अभी तक स्पष्ट ऐलान नहीं हुआ है।

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