'ऑपरेशन सिंदूर' के बाद कांग्रेस के सामने पहली सबसे बड़ी चुनावी चुनौती बिहार चुनाव के रूप में खड़ी है। यह चुनाव न केवल पार्टी की रणनीतिक दिशा को तय करेगा, बल्कि उसके पारंपरिक मुस्लिम वोट बैंक पर पकड़ की भी असली परीक्षा साबित होगा। बिहार की 17% मुस्लिम आबादी पर कांग्रेस, आरजेडी और जेडीयू तीनों की नज़रें टिकी हैं। कांग्रेस का लक्ष्य साफ है—मुस्लिम वोटों को दोबारा अपने पक्ष में लाना और खोई हुई राजनीतिक ज़मीन को वापस पाना।
हाल के वर्षों में कांग्रेस ने एक तरफ हिंदुत्व की ओर झुकाव दिखाया तो दूसरी ओर अल्पसंख्यकों को भी लुभाने की कोशिश की। मगर हकीकत यह है कि हिंदू वोट बैंक पर आज भी बीजेपी का दबदबा कायम है। जिन राज्यों या क्षेत्रों में कांग्रेस को हिंदू वोट मिलते भी हैं, तो वह स्थानीय मुद्दों या बीजेपी से असंतोष के कारण होते हैं, न कि धार्मिक आधार पर। ऐसे में कांग्रेस अब एक बार फिर अपने पुराने और भरोसेमंद वोट बैंक यानी मुस्लिम मतदाताओं की ओर लौटती दिख रही है।
इस रणनीतिक बदलाव की झलक ;ऑपरेशन सिंदूर पर पार्टी के संतुलित रुख से भी मिलती है। जहां एक ओर कांग्रेस ने सरकार के सैन्य एक्शन का समर्थन किया, वहीं पार्टी के कुछ नेताओं ने नाम पर आपत्ति भी जताई। कांग्रेस नेता उदित राज ने "सिंदूर" जैसे धार्मिक प्रतीक का प्रयोग किए जाने पर सवाल खड़ा किया, जिससे यह संकेत देने की कोशिश हुई कि कांग्रेस आज भी बीजेपी के बहुसंख्यकवादी एजेंडे को चुनौती देने के लिए प्रतिबद्ध है।
इसी तरह, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी पार्टी की सोच में बदलाव दिखा है। ईरान-इज़राइल युद्ध के मुद्दे पर प्रियंका गांधी वाड्रा ने सरकार की चुप्पी पर तीखा हमला बोला। उन्होंने इज़राइल की नीतियों को मानवाधिकारों का उल्लंघन बताया और भारत की चुप्पी को 'नैतिक दुर्बलता' कहा। संसद में कांग्रेस सांसदों द्वारा फिलीस्तीन के समर्थन में बैग लेकर जाना भी एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था—मुस्लिम भावनाओं से जुड़ने की कोशिश।
राज्य स्तर पर भी कांग्रेस अब खुलकर मुस्लिम समुदाय के लिए नीतिगत फैसले ले रही है। कर्नाटक सरकार ने मुसलमानों को सरकारी नौकरियों में 4% आरक्षण देने की घोषणा की है। इसके साथ ही अल्पसंख्यकों के लिए हाउसिंग रिज़र्वेशन को 10% से बढ़ाकर 15% करने का प्रस्ताव भी दिया गया है। ये कदम केवल प्रशासनिक नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक संदेश भी हैं—कांग्रेस अल्पसंख्यकों की हितैषी पार्टी के रूप में खुद को पेश कर रही है।
बिहार में कांग्रेस, राजद और जेडीयू के साथ गठबंधन की राजनीति में उलझी हुई है, मगर वह अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनाने की कोशिश भी कर रही है। जेडीयू के पूर्व सांसद अनवर अंसारी जैसे पसमांदा मुस्लिम नेताओं को कांग्रेस में शामिल करना इसी रणनीति का हिस्सा है। कांग्रेस चाहती है कि मुस्लिम मतदाता उसे सिर्फ एक सहयोगी पार्टी न समझें, बल्कि मुख्य विकल्प के तौर पर देखें।
हालांकि, यह राह बिल्कुल भी आसान नहीं है। कांग्रेस मुस्लिम वोटों को फिर से पाने की जद्दोजहद में जहां आरजेडी और जेडीयू जैसी क्षेत्रीय ताकतों से जूझ रही है, वहीं उसे हिंदू वोटरों को भी नाराज़ नहीं करना है। यही दुविधा उसकी सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। पार्टी सॉफ्ट हिंदुत्व और अल्पसंख्यक हितों के बीच संतुलन साधने की कोशिश में अक्सर दिशा भ्रम का शिकार हो जाती है।
बिहार चुनाव कांग्रेस के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है। यहां की 17% मुस्लिम आबादी का समर्थन पार्टी को नया जीवन दे सकता है या फिर एक और हार की पटकथा लिख सकता है। यह चुनाव सिर्फ सीटों की लड़ाई नहीं, बल्कि कांग्रेस की वैचारिक स्पष्टता, रणनीतिक दृढ़ता और राजनीतिक पुनरुद्धार की पहली बड़ी परीक्षा भी है।
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