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हिन्दी कविता : पिता, एक अनकहा संवाद

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विश्व पितृ दिवस पर एक कविता

पिता

कोई शब्द नहीं है,

न ही कोई सम्बन्ध भर।

वह तो एक अनदेखा प्रतिबिम्ब है

जिसे हम तभी पहचानते हैं

जब वह ओझल हो जाता है।

वह जन्म नहीं देता,

पर जीवन देता है।

वह कोख नहीं है,

पर कवच है।

स्नेह नहीं बरसाता,

पर छांव सा ठहरता है

एक बरगद बनकर।

पिता होना

कोई सहज उपलब्धि नहीं,

यह तो एक यात्रा है

जनक से पिता बनने की।

जहां कोई तालियां नहीं बजतीं,

कोई आरती नहीं सजती,

सिर्फ

प्रत्येक उत्तरदायित्व की परत में

एक मौन त्याग

चुपचाप भरता जाता है।

वह उंगली थाम कर चलाता है

पर धीरे से छोड़ देता है

जब तुम्हें पंख मिलते हैं।

वह पीठ पीछे चलता है

ताकि तुम्हारा आत्मविश्वास

कभी लड़खड़ाए नहीं।

पिता वो है

जो आधी रात के आकाश में

जले हुए बल्ब सा

बदलता रहता है स्वयं को

बिना शोर,

बिना प्रतिरोध।

जब तुम्हारे शब्द कम पड़ते हैं,

वह अपनी चुप्पी से

तुम्हारा मन समझ लेता है।

जब तुम टूटते हो,

वह अपने भीतर से

तुम्हारे लिए संबल उगाता है।

वह गुस्से में दिखाई देता है,

कठोरता में चुभता है

पर भीतर

हर डांट में छुपा होता है

एक अकथ प्रेम,

एक अव्यक्त सुरक्षा।

और विडंबना यह है

कि मां की ममता

तुरंत पहचान ली जाती है,

पर पिता का प्रेम

कभी घुल जाता है जिम्मेदारियों में,

कभी खो जाता है

रोज़गार की कड़वाहट में।

बहुत कम लोग जानते हैं

पिता रोते हैं।

हां,

कभी अलमारी के पीछे,

कभी छत पर,

कभी तुम्हारे फ़ीस की रसीद के पीछे

सिसकियां दर्ज होती हैं

बिना आंसुओं के।

वह कभी थकते नहीं,

या थकने का हक़ नहीं मांगते।

वे रिटायर होते हैं दफ्तरों से,

पर जीवन से नहीं।

पिता

एक ऐसा अहसास है

जो प्रायः अनुपस्थित दिखता है,

पर उसका होना

हर सफलता, हर संघर्ष में

गूंजता है

कभी एक पुरानी घड़ी की टिक-टिक में,

कभी एक फ़ोन कॉल

के 'कैसे हो बेटा?' में।

हर जनक पिता नहीं होता,

क्योंकि जनना सरल है,

पर निभाना कठिन।

पिता बनना

अपने सपनों को

दूसरे के भविष्य के लिए गिरवी रख देना है।

आज इस पितृ दिवस पर,

मैं झुकता हूं

उन सभी चुप्पियों के सामने,

जिन्होंने एक जीवन को

संरक्षित किया।

उन आहों के सामने

जिन्होंने मेरी हंसी की कीमत चुकाई।

और अपने भीतर के उस अहसास को

पहचानता हूं

जो सदैव साथ था

कभी एक सलाह में,

कभी एक इन्कार में,

कभी बस चुपचाप

रात में लौटते उस कदमों की आहट में।

पिता तुम कहीं नहीं थे,

फिर भी हर जगह थे।

आज मैं तुम्हें

अनुभूति से प्रणाम करता हूं।

(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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