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हिन्दी कविता: प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती

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(अतुकान्त कविता)

तुमने पूछा था

क्या तुम मुझसे प्रेम करते हो?

मैं हंसा नहीं,

कुछ बोला भी नहीं,

केवल देखा

जैसे वह प्रश्न

मेरे भीतर से निकला हो,

और मुझ में लौट जाना चाहता हो।

प्रेम

वह शब्द नहीं था

जिसे मैंने कभी कहा था

यह वह मौन था

जो तुम्हारी हंसी के पीछे थरथराता था,

वह सिहरन था

जो तुम्हारी उंगलियों की छुअन में

बोल जाती थी।

प्रेम में

कभी पूर्णिमा नहीं होती

चांद आता तो है

पर अधूरा,

कभी किसी कोने से कटा हुआ,

कभी बादलों में छिपा,

कभी इतना पास

कि छूने की इच्छा हो

पर छूओ तो उंगलियां भीग जाती हैं

केवल नमी से।

तुम्हें चाहिए था

जो तुम्हारे हर सवाल का जवाब दे,

हर कमी को भर दे,

जो तुम्हारी हर बेचैनी को छूकर

आराम कर दे।

मैं वह नहीं बन सका।

मैं सिर्फ वह बना

जो चुपचाप तुम्हारी पीठ सहलाता रहा

जब तुम अपने पुराने घावों को

दुबारा जीती थीं,

जो तुम्हारी आंखों में उतर कर

तुम्हारा अतीत पी जाता था

ताकि तुम थोड़ी हल्की हो सको।

तुम हर दिन

मुझमें कुछ ढूंढती रहीं

और मैं हर दिन

अपने भीतर कुछ खोता गया।

पर मैं इतना कुछ कर

भी अधूरा ही रहा।

क्योंकि प्रेम में पूर्णिमा नहीं होती।

प्रेम

एक ऐसा संकल्प है

जिसमें पूर्णता की लालसा

हर क्षण

अधूरेपन से टकराती रहती है।

दो लोग

एक-दूसरे के निकट होकर भी

कभी एक नहीं हो पाते

क्योंकि आत्माएं

देहों की तरह गले नहीं लगतीं।

तुमने समझा

मैं चुप हूं,

शायद उदास हूं,

या शायद डरा हुआ

पर नहीं,

मैं तो तुम्हारे भीतर उतर जाना चाहता था,

जैसे नदी उतरती है सूखी जमीन में,

बिना कोई आवाज़ किए।

मैं तुम्हारे हर स्पर्श में

खुद को तलाशता रहा।

मैंने तुम्हारी बेरुखी को

अपने भीतर संजो लिया

जैसे सर्द हवाओं को

ओस की बूंदें समेट लेती हैं।

तुमने जब एक दिन कहा

हम कहां जा रहे हैं?

मैं कुछ नहीं कह सका

क्योंकि मैं जानता था

हम कहीं नहीं जा रहे थे,

हम तो बस ठहरे हुए थे,

एक ऐसे पुल पर

जिसका दूसरा छोर

कभी बना ही नहीं।

तुम्हारे साथ

हर दिन

एक उत्सव हो सकता था

पर प्रेम ने हमें

चुप रहना सिखाया,

एक-दूसरे के मौन को समझना,

बिन कहे सहना,

बिन मांगे देना।

पर मैं ठहरा रहा

तुम्हारे शब्दों के पीछे,

तुम्हारे सवालों के नीचे,

तुम्हारे मौन के भीतर

क्योंकि प्रेम में

कभी पूर्णिमा नहीं होती।

कभी-कभी

तुम्हारी आंखें

इतनी दूर लगती हैं

जैसे कोई जलता हुआ दीपक

किन्हीं और की रात में

मैं देखता हूं

और सोचता हूं

क्या मैं उस उजाले में शामिल हूं?

या सिर्फ अंधेरे का हिस्सा हूं?

प्रेम में

कभी पूर्णिमा नहीं होती

कभी न भरने वाली रिक्तियां होती हैं,

जैसे तुम मेरे पास होकर भी

कभी पूरी तरह मेरी नहीं थीं।

तुम्हारे मन के किसी कोने में

हमेशा कुछ ऐसा था

जिसे मैं मिटा नहीं सका

और तुमने भी कभी चाहा नहीं

कि मैं उसे मिटाऊं।

हम दोनों ने

प्रेम को पूजा की तरह जिया,

पर मूर्ति कभी पूरी नहीं बनी

कभी किसी अंग में दरार रह गई,

कभी कोई रंग

सही से नहीं चढ़ पाया।

तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर

मैंने अक्सर सोचा

क्या यही है सम्पूर्णता?

या यह भी एक भ्रम है

जो किसी अगले वक़्त में

टूट जाएगा?

तुम मुस्कुराई थी

और चुप रही

जैसे हर स्त्री

प्रेम में कुछ छिपा लेती है

अपने भीतर

कभी खोने के भय से,

कभी खुद को बचा लेने की जिद में।

तुम्हारे जाने के बाद

मैंने प्रेम को समझा है

वह कोई सौदा नहीं है,

वह कोई कविता भी नहीं है,

वह एक टुकड़ा है अस्तित्व का,

जो किसी और के लिए टूट जाता है।

कभी सोचता हूं

क्या प्रेम

वाकई मिलन है?

या केवल

एक लंबा, धड़कता हुआ इंतज़ार

मैं आज भी

तुम्हारे प्रेम को जीता हूं

उस अधूरेपन के साथ

जो पूर्णिमा से कहीं अधिक पूर्ण है।

क्योंकि अधूरा प्रेम

तोड़ता नहीं

वह जीवन बन जाता है।

मैं तुमसे प्रेम करता था,

अब भी करता हूं

उस अधूरेपन के साथ

जो मुझे पूरा कर गया।

क्योंकि

प्रेम में...

कभी पूर्णिमा नहीं होती।

(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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