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जैव विविधता पर कविता : मैं अब भी प्रतीक्षा में हूं

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मैं पृथ्वी हूं।

जिन पैरों से तुमने मुझे रौंदा,

उनमें मेरी मिट्टी थी।

जिस छाया में तुमने विश्राम किया,

वह मेरे वनों से निकली थी।

तुम्हारे फेफड़ों में जो सांस चल रही है,

वह मेरी बनाई हवा है।

मैं तुम्हारी जननी थी,

मैंने तुम्हें जन्म दिया

केवल मनुष्य नहीं,

हिरण को भी, बाघ को भी,

तोते, मछली, चींटी को भी।

मैंने किसी को कम नहीं दिया

और किसी को अधिक नहीं छीना।

सभी को संतुलन दिया,

जीवन की एक विराट श्रृंखला दी,

जहां एक का जीवन,

दूसरे के जीवन की शर्त थी।

लेकिन तुमने क्या किया?

तुमने संतुलन तोड़ा।

तुमने सोचा तुम सबसे श्रेष्ठ हो।

तुमने नदियों को बांध दिया,

पहाड़ों को काट डाला,

तुमने जंगलों को जला दिया

और फिर कहा 'यह विकास है।'

तुम्हारा विकास

कितना अलग है मेरे विकास से!

मैंने तो बीज से वटवृक्ष बनाया,

तुमने वटवृक्ष को कागज़ बना डाला।

मैंने सागर रचा, उसमें जीवन बोया,

तुमने उसे रसायनों से भर दिया।

मैंने जैव विविधता रची

विविध रंग, आकार, वाणी, आचरण।

हर जीव में मैंने एक कहानी बुनी,

हर फूल में एक रहस्य रखा,

हर पक्षी की उड़ान में एक स्वप्न छोड़ा।

और तुमने?

तुमने उन्हें विलुप्त कर दिया

बिना पछतावे,

बिना उत्तरदायित्व के।

हर साल सैकड़ों प्रजातियां

तुम्हारी अनदेखी से

हमेशा के लिए इस धरती से चली जाती हैं।

और फिर तुम शोक मनाते हो

'बाघ अब दुर्लभ है,'

'पानी अब खत्म हो रहा है,'

'जलवायु बदल रही है।'

नहीं!

यह जलवायु नहीं,

तुम बदल रहे हो

अपने स्वार्थ में, अपनी गति में,

अपने अत्याचार में।

तुम भूल गए

कि तुम अकेले नहीं हो।

तुम किसी विशाल जैविक

ताने-बाने का हिस्सा हो।

जिसमें एक सूक्ष्म जीव भी

तुम्हारे अस्तित्व के लिए आवश्यक है।

एक मधुमक्खी के लुप्त हो जाने से

तुम्हारा पूरा भोजन-चक्र डगमगा सकता है।

सतत विकास क्या है?

क्या वह गगनचुंबी इमारतें हैं

जो धूप को छीन लेती हैं?

या वह सड़कें जो नदियों की

राह में दीवार बन जाती हैं?

सतत विकास वह है

जो वृक्षों को काटे बिना छाया दे,

जो धरती को बांधे बिना ऊर्जा पैदा करे,

जो नदी के गीत को रोके बिना

तुम्हें गति दे सके।

सतत विकास वह है

जहां मनुष्य भी बढ़े

और बाकी जीवन भी सांस ले सके।

मैं पूछती हूं

क्या तुम्हें याद है,

जब तुम बच्चे थे,

तब तुमने गिलहरी को देखा था

या तितली को हाथ में पकड़ने की चेष्टा की थी?

क्या तुम्हारे भीतर आज भी

उन लहरों की स्मृति है

जो बिना पूछे भी तुम्हें अपनाती थीं?

प्रकृति तुम्हारा उपभोग नहीं चाहती

वह तुम्हारा सहभाग चाहती है।

उसे पूजा मत बनाओ,

उससे संवाद करो।

उससे लड़ो मत,

उसके साथ चलो।

मुझे खेद है—

कि आज जैव विविधता दिवस

एक आयोजन बनकर रह गया है।

कुछ भाषण, कुछ फोटो, कुछ पोधारोपण

और फिर वापस

उसी पुराने मार्ग पर

जो केवल विकास की

रफ्तार जानता है,

दिशा नहीं।

मैं अब भी प्रतीक्षा में हूं

कि तुम रुकोगे।

अपनी मशीनों से,

अपने अंधे प्रगति-पथ से,

और एक बार फिर

मेरी आंखों में झाँकोगे।

जहाँ अब भी पक्षियों के घोंसले हैं,

जहां हिरण अब भी डरते हैं,

जहाँ झील अब भी सूखने से पहले

आकाश की छाया अपने भीतर संजोती है।

मैं पृथ्वी हूं

अब भी जीवन देती हूं।

पर अब चाहती हूं

साझेदारी।

तुमसे।

तुम्हारे बच्चों से।

तुम्हारे विकास से।

क्या तुम तैयार हो?

अपने भीतर की उस संवेदना को

फिर से जागृत करने के लिए,

जो एक तितली के पंखों की थरथराहट में

सृष्टि की कविता पढ़ सकती है?

क्या तुम तैयार हो?

विकास को फिर से परिभाषित करने के लिए

जहां ‘आधुनिक’ होने का अर्थ

‘निर्दयी’ होना न हो,

बल्कि ‘सहजीवी’ होना हो।

क्या तुम तैयार हो?

प्रकृति से माफ़ी माँगने के लिए

मुझे समझने के लिए,

मेरे साथ चलने के लिए।

मैं पृथ्वी हूं,

मैं क्षमा कर सकती हूं

यदि तुम सचमुच बदल सको।

मैं पुनः फूल खिला सकती हूं,

यदि तुम केवल

तोड़ने की जगह

सीखो संजोना।

अब समय नहीं है

केवल भाषणों का,

अब समय है

संवेदनाओं को क्रिया में बदलने का।

मैं अब भी प्रतीक्षा में हूं

किसी ऐसे मानव की

जो मनुष्य से आगे बढ़कर

फिर से ‘जीव’ बन सके।


(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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